24 जुलाई, 1991 को जब नेहरू जैकेट और आसमानी पगड़ी पहने हुए मनमोहन सिंह अपना बजट भाषण देने के लिए खड़े हुए तो सारी दुनिया की निगाहें उनके ऊपर थीं. 

भाषण की शुरुआत में ही उन्होंने स्वीकार किया कि इस समय वो बहुत अकेला महसूस कर रहे हैं क्योंकि राजीव गांधी का मुस्कराता हुआ चेहरा उनके सामने नहीं है. 

उनके भाषण में उस परिवार का बार बार ज़िक्र किया गया जिसकी नीतियों को वो सिरे से ख़ारिज कर रहे थे. दिलचस्प बात ये थी कि मनमोहन सिंह को बजट बनाने में सहायता देने वाले दो वित्त मंत्रालय के दो चोटी के अधिकारी एस पी शुक्ला और दीपक नैय्यर मनमोहन सिंह की विचारधारा से सहमत नहीं थे. 

मनमोहन सिंह के 18000 शब्दों के बजट भाषण की सबसे ख़ास बात ये थी कि वो बजटीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 8.4 फ़ीसदी से घटाकर 5.9 फ़ीसदी पर ले आए थे. 

इसका मतलब था सरकारी ख़र्चों में बेइंतहा कमी करना. मनमोहन सिंह ने अपने भाषण का अंत विक्टर ह्यूगो के मशहूर उद्धरण से किया था, ‘दुनिया की कोई ताक़त उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ पहुँचा है.’महज़ कुछ मिनटों में मनमोहन ने नेहरु युग के तीन स्तंभों लाइसेंस राज, सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार और विश्व बाज़ार से भारत के अलगाव को समाप्त कर दिया था. 

अमेरिका में भारत के राजदूत आबिद हुसैन ने वाशिंगटन से ईशेर अहलुवालिया को फ़ोन कर कहा कि वो उनकी तरफ़ से मनमोहन सिंह को गले लगा लें और उन्हें जाग्रति फ़िल्म का वो गाना याद दिलाएं , ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल’.

हालाँकि ये गाना महात्मा गांधी के लिए लिखा गया था लेकिन वर्तमान परिपेक्ष्य में मनमोहन सिंह पर भी लागू होता था. मनमोहन सिंह की सादगी और किफ़ायत के तरीक़े से ज़िंदगी जीने के तरीक़े ने उन्हें उदारवाद की वकालत करने के लिए सशक्त बनाया. 

उन पर ये आरोप नहीं चिपक पाया कि उन्होंने उपभोक्तावाद और आलीशान ज़िंदगी के मोह के कारण उदारवाद का समर्थन किया है. 

सोने पर सुहागा तब हुआ जब जिनीवा में साउथ कमीशन की नौकरी के दौरान कमाए गए डॉलरों की क़ीमत रुपए के अवमूल्यन के कारण बढ़ गई तो उन्होंने सारे अतिरिक्त पैसे को जोड़ कर प्रधानमंत्री सहायता कोष में जमा करवा दिया. RIP मनमोहन सिंह!! 

 

*प्रसिद्ध पत्रकार रेहान फज़ल की टिप्पणी 

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