क्या 4 जून को भाजपा देश से भाग जाएगी या विपक्षियों में मचेगी चीख-पुकार? क्या विपक्षियों के अप्रत्याशित हार से सभी आशंकित हैं?

सनातन पद्धति से होनेवाले अधिकांश परंपरागत विवाह में सात फेरे का बहुत महत्व है. जब दूल्हा और दुल्हन अग्नि के सात फेरे लेते हैं तो छह फेरे के बाद मामला बहुत रोमांचक, दिलचस्प और दिल-दिमाग़ को बेचैन करनेवाला होता है. दूल्हा दुल्हन और दोनों पक्ष के सभी लोग यह सोचते रहते हैं कि सात फेरे निर्विघ्ण पूरी हो. 

कोई धमा-चौकड़ी या वैसा रहस्यवादी परिवर्तन ना हो जाये जिससे सभी की साँसे अटक जाये या फिर दूल्हा या दुल्हन का पहले से चाहनेवाला या चाहनेवाली कोई ऐसा हो जो बीच में आकर किसी तरह का बतंगड़ खड़ा कर दे. वहीं दूसरी ओर संभव है कि कोई ऐसा भी होगा जो शायद यही सोचता हो कि काश कुछ ऐसा हो जाये कि समय का चक्र पीछे घूम जाये और फेरे उल्टे हो जाते.

बहरहाल यह आलेख सनातन पद्धति से होनेवाले किसी विवाह का विवरण बताने का नहीं है बल्कि भारत के सबसे बड़े लोकतांत्रिक त्यौहार, भारत की सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा के चुनाव 2024 की भूमिका है. 

आम चुनाव 2024 वास्तव में बहुत ही मजेदार चुनाव है जो शुरू में जितना अधिक नीरस था अब उतना ही अधिक रोमांचक है और ऊपर बताये गये पारंपरिक भारतीय विवाह से यदि तुलना की जाये तो शायद दूल्हा-दुल्हन के रूप में भारतीय मतदाता और वे राजनीतिक दल या उनका गठबंधन है जिनमें से एक का बंधन जनता के साथ अगले पाँच साल के लिये होगा. 

वह वही होगा जो इस चुनाव में मतदाताओं का विश्वास जीतेगा अर्थात 543 में से कम-से-कम 272 सीटों पर उसकी जीत होगी और वह सरकार बनायेगा. दूसरी ओर वैदिक या कर्मकांडी पंडितजी की भूमिका में भारतीय निर्वाचन आयोग (ईसीआई) है जबकि यहाँ बाराती-शाराती की भूमिका में पूरी देश - पूरी दुनिया है जो ख़ामोशी, शिद्दत और बहुत अधिक जागरूकता के साथ समस्त प्रक्रियाओं को देख रही है.

...और लगे हाथ अभी यह भी बता दूँ कि जहाँ अग्नि कुंड के सात फेरे बोले तो.. लोकसभा चुनाव का छह चरण पूरा हो चुका है वहीं सातवें फेरे या चरण अगले 1 जून को पूरा होना है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही अनेक उम्मीदवारों का भाग्य ईवीएम में कैद हो जायेगा. उसी दिन शाम छह बजे से एग्जिट पोल की शुरुआत होगी. फिर तीन दिन तक आंशिक बदहवासी छायी रहेगी और 4 जून को यदि सभी आकलन सही बैठे तो आयेगा तो मोदी ही.

1 करोड़ 82 लाख पहली बार के मतदाताओं के साथ ही लगभग 97 करोड़ भारतीय मतदाताओं को सक्रिय भूमिका निभाने का अवसर देनेवाले इस चुनाव में एक वैसी बेहद लंबी संपूर्ण प्रक्रिया है जो इस बार औपचारिक रूप से तो 16 मार्च से शुरू होकर 4 जून तक अर्थात कुल 81 दिनों तक चलेगी. 

साढ़े 10 लाख मतदान केन्द्रो पर सात चरणों में हुए मतदान में 55 लाख इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के माध्यम से लगभग डेढ़ करोड़ पोलिंग अधिकारी और सुरक्षाकर्मियों की सक्रिय सहभागिता से यह चुनावी यज्ञ हुआ और हो रहा है. महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य यह भी है कि 2 लाख 18 हज़ार वैसे मतदाता भी हैं जिनकी आयु 100 साल से अधिक है.

सात चरणों में क्रमशः 102, 89, 94, 96, 49, 57 और पुनः 57 सीट के लिये चुनाव निर्धारित हुए.

यदि देखा जाये तो पूरे के पूरे 5 साल और विशेष रूप से लोकसभा चुनाव से पहले के एक साल और चुनाव के बाद के दो-तीन महीने तक राजनीतिक तापमान काफ़ी अधिक होता है. 

चुनाव के विषय में सोचने-विचारने, आगे बढ़ते समय के साथ रणनीति बनाते हुए जैसे-जैसे दल और दलों का गठबंधन आगे कदम बढ़ाता है तो इसकी तपिश दूर गाँव-देहात तक भी महसूस की जा सकती है. 

पूरे देश में इसकी चर्चा न केवल बड़े-बड़े नेताओं के ड्राइंग रूम से लेकर राजनीतिक दलों के दफ़्तरों में होती है बल्कि नुक्कड़ पर चाय पकौड़े के ठेले, गुमटी और टपरी पर भी यह सबसे महत्वपूर्ण टॉपिक बन जाता है. जनता-जनार्दन जुट जाती है इस चर्चा में कि अगले लोकसभा में कौन-कौन चुनके जायेगा और 5 साल के लिए भाग्यविधाता बन जायेगा?

अबतक 5 साल के लिये 543 में से 486 सीटों पर उम्मीदवारों का भाग्य ईवीएम में कैद हो चुका है जबकि बाकी बची 57 लोकसभा क्षेत्रों में अगले 1 जून को अंतिम चरण में वोट डाले जायेंगे.

सबसे बड़ी पंचायत लोकसभा के लिये 543 सदस्यों के चयन होने की सभी प्रक्रियाओं पर चुनाव आयोग की नज़र है. 4 जून तक सभी की साँसे तबतक अटकी है जबतक ईवीएम मशीन, स्ट्रांग रूम में सरकारी मेहमान बनी है.


भारतीय चुनाव को भारत की बजाय दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक उत्सव कहा जाये तो यह किसी भी दृष्टिकोण से गलत नहीं होगा. यह चुनाव केवल दिल का मेला नहीं बल्कि दिमाग का खेला भी है.


मतदाताओं के बीच क्या और कैसी बातें करनी है? अपने चुनावी घोषणा पत्र (मेनिफेस्टो) में क्या, कैसा, कितना और किस स्वरूप में बताना है? ज़मीन पर चुनावी गठबंधन किसके साथ होगा? प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र के जातिगत समीकरण के अनुरूप क्या रणनीति अपनानी है? उम्मीदवार कौन होगा साथ ही किसी भी पार्टी या गठबंधन का सबसे बड़ा चुनावी चेहरा कौन है ? 

पार्टी के स्टार कैंपेनर कौन-कौन होंगे और वे अपनी बातों को किस तरह प्रस्तुत करेंगे या फिर सभी या किन्हीं का अपना-अपना, बिना ब्रेक का खुला पिच होगा जिसपर वे या सभी बिना किसी कायदा-कानून, सोचे-विचारे, संवैधानिक या नैतिक मर्यादाओं का ध्यान रखकर या उसे ताक पर रखकर बल्लेबाजी करेंगे? 

सभी लोग किस रूप में अपनी बातों को प्रस्तुत करेंगे? चुनावी रणनीति कैसी होगी... कैंपेन कैसा होगा... प्रचार अभियान कैसा होगा... तकिया कलाम कैसे होंगे... आरोप कैसे लगाये जायेंगे... किस प्रकार से चुनावी आचार संहिता का पालन किया जायेगा और राजनीतिक आक्रमण का जवाब कैसे दिया जायेगा... चुनाव प्रचार का स्वरुप कैसा होगा... स्लोगन क्या होंगे... झण्डा, बैनर, होर्डिंग व डिज़ाइन कैसा होगा... अखबारों में विज्ञापन किस स्वरूप में होंगे और अब नवीनतम परिप्रेक्ष्य में विविध सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपनी बातों की किस रूप में प्रस्तुत किया जायेगा? 

कितना कीचड उछाला जायेगा? इन सब की जिम्मेदारी बहुत अधिक होती है. इन सबसे ऊपर चुनाव में खर्च की जानेवाली भारी-भरकम राशि का जुगाड़ सबसे पहले सुलझाये जानेवाले सवालों में से एक है. अपनी-अपनी पार्टी को चुनाव में जीत दिलाने का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व उसके नेता एवं नेताओं पर होता है और बिना ऊपर के मुद्दों पर गंभीरता से सोचकर निर्णय लिये बिना एक कदम चलना भी मुश्किल ही नहीं असंभव भी है.

कुल मिलाकर बहुत लंबी प्रक्रिया होती है. अन्य बातों के साथ ही प्रत्येक गंभीर उम्मीदवार को सभी मतदान केन्द्रो पर वैसे मतगणना एजेंट को जिम्मेदारी भी देनी होती है जो शायद औपचारिक-अनौपचारिक रूप से अपने उम्मीदवार को जितवाने की जुगत लगा सके. 

चुनाव की अधिसूचना से शुरुआत के बाद जब तक चुनाव प्रचार समाप्त नहीं होता और वोट डालने की प्रक्रिया शुरू होने के बाद से जब तक अंतिम वोट डाला ना जाये. उसके बाद स्ट्रांग रूम तक ईवीएम की यात्रा और फिर मतगणना. राम जाने परिणाम क्या होगा लेकिन एक प्रत्याशी की यही यात्रा होती है. परन्तु पार्टी या गठबंधन के प्रमुख नेताओं के सिर पर पूरा भार होता है. अधिकांश मामलों में उन्हें खुद चुनाव भी लड़ना और जीतना होता है साथ ही अपने उम्मीदवारों की नैया भी पार लगानी होती है.


कुल मिलाकर यह दौर वास्तव में बहुत लंबी प्रक्रिया होती है. यदि 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र बात की जाये तो 16 मार्च को लोकसभा चुनाव की घोषणा मुख्य निर्वाचन आयुक्त और उनके दो सहयोगियों के द्वारा की गयी थी. उसके बाद एक जून को शाम 5 बजे 2024 चुनाव का अंतिम वोट डाला जायेगा. यह कुल 81 दिनों का लंबा सफर है जो अब बमुश्किल कुछ दिनों में पूरा हो जायेगा. फिर होगी नयी लोकसभा.


विभिन्न राजनीतिक दल, लम्बे समय से अपनी चुनावी रणनीति तैयार कर रहे थे. कुछ अपनी सटीक रणनीति के अनुसार तो कुछ कैटर पिलर की तरह नौ दिन चले ढ़ाई कोस की तर्ज़ पर ढूंढते ही रह गये कि सही रास्ता है तो आखिर कौन-सा?

ना मुद्दों को जनता के दिलों में उतार पाये न ही उनका दिमाग़ यह निर्धारित कर सका कि करें तो करें क्या? ऊपर से जब प्रतिद्वंदी दमदार हो और फूल टॉस पर बेरहमी से छक्का मारने की उसे पुरानी आदत हो और दूसरी तरफ लूज बॉल फेंकने की पुरानी आदत छूटे न छूटे तो फिर क्या कहा जा सकता है?

बहरहाल, भारतीय चुनाव केवल दिल का मेला नहीं बल्कि दिमाग का खेला भी है. इस बात को गांठ बांधकर रख लें कि 4 जून को इस बात का भी परीक्षण होना है कि भारतीय नेताओं और उनके आसपास के लोगों, विशेषज्ञों, पार्टी सहयोगियों और अन्य अनेक लोगों ने अपने समय का कितना अधिक सदुपयोग या दुरुपयोग किया?
 

भारतीय जनता पार्टी तो एक चुनाव समाप्त होते ही जीत के लड्डू खाकर या फिर आँसू बहाकर पुनः चुनावी मोड में आ जाती है. फिर ऑटो पायलट मोड में दौड़ती है वह 24 गुणा 7 और दिन 365 या 366. पिछले 5 साल से भी वह चुनावी मोड में भी थी और मूड में भी. 

जबकि कांग्रेस पार्टी और उसके सहयोगी पिछले कुछेक महीने या साल से चुनाव में जुटे. और यह जुटान भी बहुत दिलचस्प था.
भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए और दूसरी ओर कांग्रेस एवं इंडी गठबंधन की रणनीति और उसके कार्यान्वयन के स्तर का सवाल कोई यक्ष प्रश्न नहीं है बल्कि, वह ज़मीन पर लगातार नज़र भी आ रहा है. शायद पिछले 2-3 साल से.


2019 के पिछले लोकसभा चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी को 303 और उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 353 सीट मिले थे तो उसी समय कांग्रेस और सभी विपक्षी दल लूटे, पिटे, उदास, लाचार और बेकार नज़र आ रहे थे. 

मोदी और उनकी टीम ने सभी को न केवल बुरी तरह से मात दी थी बल्कि, इतना धूल-धूसरित किया था कि शायद उन्हें हिम्मत जुटाने में ही महीनों गुजर गये. यदि आपको याद हो तो तब राहुल गांधी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था और उसके बाद में मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्यक्ष बनने तक के बीच के दौर में जो लंबा अंतराल गुजरा उसे बताने की जरूरत नहीं. 

लेकिन गिरते हैं शह सवार ही मैदानी-ए-जंग में, वो क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चले... की तर्ज पर विश्वास यही था कि तब कांग्रेस अपने 133 साल के इतिहास को याद कर पुनः नयी जुगत लगायेगी और हिम्मत जुटाकर पहले विपक्ष की भूमिका का सटीक निर्वहन करेगी और 2024 के चुनाव में नये दमखम के साथ भारतीय जनता पार्टी और उसके एनडीए का सामना करेगी. 

लेकिन हुआ बिल्कुल उलट. 2019 में लोकसभा चुनाव में हार से शुरू हुआ कांग्रेस और उसके यूपीए या इंडी गठबंधन या फिर अन्य विपक्षी दलों का सफर आज अंदाज़े के अनुसार मूल रूप से उसी चौराहे पर समाप्त होनेवाला है जहाँ से 2019 में इसकी यात्रा शुरू हुई थी और इसकी गहराई में जाकर यदि देखा जाये तो यह केवल जनता-जनार्दन की पसंद का मुद्दा नहीं है. 

बल्कि उससे भी कहीं आगे जाकर जनता के मूड को ना समझ पाने का घातक परिणाम है. यहाँ इस मोड़ पर मैं यह बिल्कुल भी नहीं कहूँगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में 5 साल तक काम करनेवाली केन्द्र की सरकार ने अपना काम बहुत ही बढ़िया तरीके से किया है. वह बिल्कुल एक अलग मुद्दा है और अभी इसकी चर्चा होने पर संपूर्ण बातचीत की दशा और दिशा ही बदल जायेगी.

सवाल तो यह है कि किसी भी सरकार के शपथ लेते के साथ ही कहीं-न-कहीं एंटी इनकंबेंसी फैक्टर अगले घंटे में ही शुरू हो जाता है. आखिर वह कौन सा कारण था जिसके कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के किसी भी तथाकथित असंतोष का विपक्षियों ने लाभ नहीं उठाया या फिर इससे भी आगे जाकर नरेन्द्र मोदी द्वारा खींची गयी लकीर से बड़ी लकीर खींचने के मामले में कांग्रेस और उसके सहयोगी फिसड्डी साबित हुए. 

इसके कारण आज कांग्रेस और उसके साथी घूमते-घूमते पुनः 2019 के उसी मोड़ पर पहुँच गये जहाँ से उन्होंने अपनी शुरुआत की थी.
यह आलेख न तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सभी दलों का कोई महिमा मंडन है और न ही अब बचे मतदान को प्रभावित करने का कोई प्रयास.

एक मामले में कहा जाये तो चुनाव परिणाम आने के पहले इस आलेख को लिखना पता नहीं नैतिकता की दृष्टि से कितना उचित है या अनुचित? लेकिन मेरे दृष्टिकोण में यह उचित इसीलिये है क्योंकि अमूमन सारा मामला तो ईवीएम में कैद हो ही चुका है.
 

2019 में लोकसभा का चुनाव परिणाम आने के बाद से अबतक भारतीय जनता पार्टी ने तकरीबन अपने एक-एक घंटे का बहुत बढ़िया तरीके से सदुपयोग किया है. कोई भी चुनाव मौलिक रूप से दो दलों या गठबंधन के बीच का चुनाव होता है और जीतता वही है जिसकी चाल अपने प्रतिद्वंदी से थोड़ी-सी बेहतर और तेज होती है. 

भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पिछले 5 साल, अपनी एक-एक चाल बहुत खूबसूरत अंदाज में चली और लोगों को गोलबंद किया. अपनी पार्टी और सरकार में सही पदाधिकारियों या कार्यकर्त्ताओं और नेताओं को भी सही जगह पर बैठाया साथ ही जहाँ भी जरूरत हुई तत्काल बदलाव किया. 

नरेन्द्र मोदी के ऊपर सरकार की भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी थी. उन्हें बखूबी पता था कि 2024 के जंग को यदि जीतना है तो सरकार को बहुत बढ़िया प्रदर्शन करना पड़ेगा. सरकार के डिलीवरी सिस्टम को दुरुस्त करते हुए अंतिम जरूरतमंद व्यक्ति के दरवाजे पर सरकारी योजनाओं का लाभ पहुँचाना पड़ेगा अथवा ऐसा होता हुए नज़र आना जरूरी है. पर डिलीवरी सिस्टम में जाति, धर्म, प्रान्त, भाषा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं. लक्ष्य भी निर्धारित करना पड़ेगा और जहाँ जरूरत हो वहाँ ध्रुवीकरण से भी परहेज नहीं.


लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि अनेक वैसे बहु प्रतीक्षित मुद्दों को सुलझाया जाये जो बरसों-बरस से भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र में अपना स्थाई स्थान बना चुके थे. इसमें श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर के निर्माण के साथ-साथ जम्मू कश्मीर से धारा 370 का विशेष संवैधानिक प्रावधान हटाने और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लागू करने की भी बात थी जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान था. 

लगभग 5 साल में 1827 दिनों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ना तो एक भी दिन आराम किया और न ही किसी को आराम करने दिया. भ्रष्टाचार पर तगड़े प्रहार किये और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), सीबीआई और आयकर विभाग की सभी बंधी हुई जंजीरें खोल दी. नतीजा सभी किसी अदृश्य लगाम से आज़ादी प्राप्त कर दौड़ने लगे और इसकी जद में आये लोगों में वैसे लोगों और उनसे जुड़े संस्थाओं, प्रतिष्ठानों के मामले भी चर्चा में रहे जो नेता प्रजाति के थे या जिनकी डोर राजनीतिज्ञों से जुड़ती थी विशेषकर विपक्षियों से. 

हालांकि उनकी संख्या एक प्रतिशत से भी कम है लेकिन अमूमन उनमें से बहुत सारे उन विपक्षी दलों से ही संबंध रखते हैं जो 2024 में भारतीय जनता पार्टी को चुनौती देने के लिये कमर कसके खड़े हो रहे थे.
दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी और केन्द्र सरकार के साथ ही भाजपा का लोगों से संवाद करने का अंदाज भी काबिल-ए-तारीफ है. संवाद दो तरफा था जहाँ आम जनता की बातों को भी बहुत ही ध्यान से सुना जाता है और उसपर समुचित प्रतिक्रिया भी होती है. 

प्रधानमंत्री के रूप में नरेन्द्र मोदी की भूमिका केवल फीता काटने, दीप जलाने, विमोचन या अनावरण करने, फूल की माला पहनने, इधर-उधर घूमने और अभिनंदन समारोहों में शामिल होने के साथ ही सरकारी बैठकों-सम्मेलनों में औपचारिक रूप से शामिल होने तक ही सीमित नहीं थी बल्कि उससे कहीं आगे बढ़कर वह खुद मैदान में कूद पड़े और एक-एक विकास गतिविधियों पर अपना थर्मामीटर लगा दिया. 

उससे भी कहीं ज्यादा मोदी के सभी मंत्री एक प्रकार से केन्द्र सरकार के वैसे घोड़े बन गये जो लगातार दिन-रात दौड़ रहे थे और किसी की भी कोताही ना काबिल-ए-बर्दाश्त थी. दूसरी तरफ यदि देखा जाये तो भारतीय जनता पार्टी निरंतर आक्रामक रही. यदि कहीं उसे संभलकर चलने की मजबूरी भी आयी तो उसकी अवधि भी बमुश्किल कुछ घंटे या कुछ दिन का ही रहा. 

कुल मिलाकर तीव्र आक्रामकता, केन्द्र सरकार का भी लक्ष्य एवं लक्षण रहा और भारतीय जनता पार्टी का भी. जी-20 जैसे इवेंट हुए जिसमें पूरे देश ने दुनिया के अनेक देशों से आये लोगों और उनकी गतिविधियों को देखा. अचानक से तकरीबन 100 से अधिक भारतीय शहरों और एक-एक प्रदेश एवं सभी केन्द्र शासित प्रदेशों में सभी को यह एहसास हुआ कि दिल्ली भले ही राजधानी हो लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही. 

अब सभी का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष जुड़ाव पूरी दुनिया की गतिविधियों के साथ हो गया है. इसे बहुत लोगों ने दिल-दिमाग से भी देखा लेकिन जो नहीं भी समझ सके उनके अवचेतन मस्तिष्क में भी कहीं-ना-कहीं यह बात समा गयी कि अब पहले जैसी बात नहीं रही. इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हेलीकॉप्टर और हवाई जहाज का वैसा ही सदुपयोग किया जिस प्रकार से हम रिक्शे-टेंपो और साइकिल-बाइक का करते हैं. पूरे देश को वे धाँग गये. 

यदि किसी शाम सुदूर कन्याकुमारी में नजर आ रहे हैं तो हो सकता है कि अगली सुबह उनका दर्शन जैसलमेर में हो. यह केवल चुनावी अभियान की बात नहीं है बल्कि यदि मानना चाहे तो यह कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी 24 घंटे 7 दिन चुनावी मोड में ही रहे और भारतीय जनता पार्टी के सभी नेताओं, कार्यकर्ताओं के साथ ही सरकार के सभी मंत्रियों-अधिकारियों में जोश भरकर उन्हें उनके काम पर दौड़ा दिया. 

सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में यदि किसी भी घोड़े के उत्साह या ऊर्जा में कोई भी कमी हुई तो फिर नये सिरे से सरकार और संगठन की लगाम कसी गयी. यह अभियान निरंतर जारी रहा.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का खास अंदाज है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक लगातार नजर आता है. चुनाव में भी ऐसा ही है. वैसे भी लालकिले की प्राचीर से मोदी ने एक बार कहा था... चार साल राष्ट्रनीति और एक साल राजनीति.

अभी वही एक साल चल रहा है.30 मई को अंतिम चुनाव प्रचार होगा क्योंकि सातवें दौर का चुनाव 1 जून को है और पूरा विश्वास है कि 30 की शाम तीन-चार बजे भी मोदी पंजाब में कहीं-ना-कहीं किसी पब्लिक रैली को संबोधित कर रहे होंगे. फिर वे कन्याकुमारी रवाना होंगे जहाँ ध्यान साधना में लीन होंगे. दूसरी ओर ऐसा ही हाल अमित शाह, योगी आदित्यनाथ और अन्य एनडीए के भी अनेक प्रमुख नेताओं और भाजपा एवं एनडीए गठबंधन के राजनीतिक दलों के नेताओं-कार्यकर्ताओं का भी है.

अब बात करते हैं कांग्रेस और उसके गठबंधन की. पिछले लोकसभा चुनाव में ही इन सबने अपना पूरा जोर लगा दिया था लेकिन यह कहने में मुझे संकोच है कि वह केवल मेहनत था या फिर, मेहनत का अभिनय. तब 2019 में कांग्रेस और यूपीए ने जो मेहनत और जुगत लगायी थी उसमें दिल-दिमाग की कितनी मात्रा थी.. आम लोगों से जुड़ने की कितनी कसक थी.. जुझारूपन कैसा और कितना था.. और इन सबके बाद अंतिम में परिणाम क्या रहा.. यह सब दुनिया से छुपा हुआ नहीं है.

गंभीर राजनीतिक रणनीति की बात की जाये तो 2019 में मोदी ने जब दूसरी बार सत्ता संभाली तो लुटी-पिटी बेचैन आत्मा की तरह कांग्रेस और इसके गठबंधन के सभी साथी अपना-अपना हौसला तोड़कर बिना किसी राजनीतिक और रणनीतिक योजना के शांत रहे. जोश और उत्साह को परे रखकर बस उतना ही काम करते रहे जितना करना जरूरी था. 

दो-ढाई साल बाद जब नींद खुली तो कांग्रेस और यूपीए के सभी दलों का ध्यान इस बात में लग गया कि अब कुछ करना चाहिये.
बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार ने सभी में थोड़ा-सा उत्साह भरा तो हलचल बढ़ी. तब दो-तीन साल पहले कांग्रेस और यूपीए के सभी दलों और नेताओं की गतिविधियाँ धीरे-धीरे.. हौले-हौले गति पकड़ने लगी. पटना, मुंबई, बेंगलुरु, दिल्ली में कुछेक बैठके हुई लेकिन उसमें आपसी सहयोग और समन्वय की बजाय मतभेद ही ज्यादा नजर आया. 

फिर किसी ने मेंटोस खाया और दिमाग की बत्ती जली. आइडिया आया कि यूपीए का नया नामकरण किया जाये. कुछ ऐसा जो लगे बिल्कुल नया जैसा. ले देकर सभी ने मिलजुल कर इंडिया नाम दिया अर्थात नाम ऐसा हो जिसे मोदी ना तो गाली दे सके और ना ही कटाक्ष कर सके. उन्हें लगा कि इससे भारतीय जनता पार्टी और मोदी के राष्ट्रवाद की सांस अटक जायेगी. यह बात भी बहुत रहस्यमयी है कि यह इंडिया नाम किसने दिया? 

आई.एन.डी.आई.ए. का विस्तृत नाम बताने में आज अच्छे-अच्छो के पसीने छूट जायेंगे. ना केवल आम जनता बल्कि उस कांग्रेस एवं विपक्षी गठबंधन के नेताओं के भी जो इंडी अलायंस का हिस्सा हैं. उधर नरेन्द्र मोदी और उनके नेताओं-कार्यकर्त्ताओं ने इसे कभी घमंडिया कहा तो कभी इंडी अलायंस. उसके बाद मुख्य संयोजक की जुगत या जुगाड़ लगनी शुरू हुई. 

फिर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा? आपसी खींचातानी और रस्सा-कस्सी के बीच नीतीश कुमार का मोह भंग हो गया और वे और उनका जेडीयू फिर से एनडीए की उसी डाल पर जा बैठे जहाँ से उन्होंने लगभग साढ़े चार साल पहले उड़ान भरी थी. मोदी सहित सभी पुराने पक्षियों ने उनका सतरंगी सुर में भरपूर स्वागत किया और फिर गाड़ी आगे चल पड़ी. महत्वपूर्ण बात यह भी है कि पिछले तीन साल में शायद ही कोई ऐसा सप्ताह गुजरा हो जब कांग्रेस के किसी-न-किसी नेता ने अपने पार्टी को आईना ना दिखाया हो और वह मुश्किल से कुछ घंटे, दिन या सप्ताह के अंतराल पर भाजपा के किसी कार्यालय में झण्डा थामे और भाजपाई कमल फूल का पटका पहने नजर ना आया हो.

उधर समय गुजरता गया. प्रकृति के विधान के अनुसार बदलाव ही नियम है और संवैधानिक प्रावधान के अनुसार आम चुनाव एक कहानी. कांग्रेसी भी इस बात को जानते हैं पर उसका कोई भी एजेंडा अर्थात मुद्दा वैसा नहीं था जो एक ही झटके में लोगों के दिल-दिमाग में उतर जाये. यह सबसे बड़ी मजबूरी थी और आगे चलकर कांग्रेस की इसी बीमारी से सभी को आत्मसात करने की मजबूरी थी.


बहुत सारे दिलचस्प टर्निंग पॉइंट भी हैं. राहुल गांधी द्वारा मोदी सरनेम के अपमान की बात हो या फिर मोदी की डिग्रियों को फेक बताने की केजरीवाल की बातें.. शराब घोटाला, खनन घोटाला हो अथवा विपक्ष के महत्वपूर्ण नेताओं का कोर्ट-कचहरी में फंसा हुआ मामला. पिछले 3-4 साल में शायद ही ऐसा कोई सप्ताह या महीना गुजरा हो जब संबंधित पीएमएलए कोर्ट, जिला एवं सत्र न्यायालय, उच्च न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक से वैसा कोई समाचार न निकला हो जो प्रदेश के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर भी सुर्खी बनी हो. नतीजा यह हुआ कि लोगों के दिल-दिमाग में कहीं-ना-कहीं यही बात बैठी रही कि घोटाले का जो चक्कर 2004 से 2014 तक के यूपीए सरकार में था, वह सरकार भले ही चली गयी हो लेकिन कांग्रेस एवं विपक्षी नेताओं के दिल-दिमाग से घोटाले की वह मानसिकता अबतक गयी नहीं है.


इसी बीच 2024 के आम चुनाव की घोषणा 16 मार्च को हुई लेकिन उससे बहुत पहले निवर्तमान लोकसभा के अंतिम सत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अबकी बार 400 पार का नारा और भाजपा के 370 सीट का लक्ष्य देने से शायद चार-पाँच दिन पहले भाजपा और एनडीए के संसदीय दल की बैठक में 400 पार की बात उठी थी. तब यह मीडिया में भी सुर्खियों में आया पर भाजपा और इसके नेताओं ने इसे सीरे से ख़ारिज कर दिया. 

 

लेकिन इस लोकसभा में अपने अंतिम संबोधन में मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के 370 प्लस और एनडीए गठबंधन के 400 पार का नारा कुछ इस अंदाज़ में दिया कि देश में सरगर्मी छा गयी. विशेष रूप से विपक्षी दलों और नेताओं में उबाल आ गया. फिर तो जैसे सभी दल (कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल भी) मोदी के ही कैंपेन का हिस्सा बन गये. कोई नहीं कह रहा था कि भाजपा और एनडीए को सरकार बनाने के लिये जरूरी 272 आयेगा या नहीं? सभी करतल ध्वनि से दो ही गाने गा रहे थे. मोदी को 400 सीट मिलेगी या मोदी को 400 सीट नहीं मिलेगी. गज़ब का मार्केटिंग फंडा चला मोदीजी ने और सभी ट्रैप में.

इसी बीच अयोध्या लोकसभा क्षेत्र के प्रत्याशी लल्लू सिंह, मेरठ लोकसभा क्षेत्र के भाजपा प्रत्याशी अरुण गोविल के साथ ही कुछ अन्य भाजपा प्रत्याशियों एवं नेताओं ने विशेष रूप से यह बताना शुरू कर दिया कि भारतीय जनता पार्टी और एनडीए को 400 सीट क्यों चाहिये? उसके बाद तो कुल मिलाकर परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि विपक्षी दल इस 400 प्लस के मनोवैज्ञानिक दायरे से बाहर निकल ही नहीं सके और कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी का यह कैचलाइन भाजपा और एनडीए नेताओं पर तो जादू कर ही रहा था साथ ही कांग्रेस और सभी विपक्षी दल और इंडी गठबंधन के नेता-कार्यकर्ता भी इसमें बहुत बुरी तरीके से उलझ गये और सभी की गतिविधियों से मनोवैज्ञानिक रूप से आम जनता के बीच एक ही संदेश पहुँचा. 272 में कोई शक नहीं लेकिन 400 पार पर विश्वास या आशंका ? अर्थात, आयेगा तो मोदी ही.....


इसी बीच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के सभी नेता अपनी प्रत्येक जनसभा में जहाँ अपने चुनावी भाषणों की विषय वस्तु अर्थात कंटेंट में परिवर्तन करते रहे और आम लोगों के दृष्टिकोण से उसे अधिक रोचक, रोमांचक और दिलचस्प बनाने के साथ ही आक्रामकता की अंतिम सीमा को छूने का प्रयास किया वहीं इस मामले में कांग्रेस के सभी नेताओं के साथ ही विपक्षी दलों के नेता भी बहुत पीछे छूट गये.


कांग्रेस और विपक्षी बहुत ही कमजोर साबित हुए अर्थात कोई तुलना ही नहीं की जा सकती. 16 मार्च को लोकसभा निर्वाचन की घोषणा से बहुत पहले से ही विशेष रूप से प्रधानमंत्री मोदी और उनके साथ ही भाजपा और एनडीए के अधिकांश नेता चुनावी मोड के एकदम टॉप गियर में आ चुके थे. पूरे देश में लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र रैली और रोड शो की एक वैसी शुरुआत हुई जो अब चुनावी इतिहास का हिस्सा बनने के कगार पर है. 

 

साढ़े 73 साल के एक व्यक्ति ने पूरे देश को अपनी ऊर्जा का ऐसा रंग दिखाया कि अच्छे-अच्छे पानी भरने लगे और जब एनडीए गठबंधन का सबसे प्रमुख चेहरा अपनी पूरी ताकत के साथ सूर्योदय की पहली किरण से देर रात तक चुनावी मोड में ही रहता हो चाहे वह रैली, रोड शो, बैठक या अख़बार-चैनल्स को इंटरव्यू तो सकारात्मक परिप्रेक्ष्य में दौड़ती ऊर्जा का अंदाजा लगाना कोई बहुत मुश्किल बात नहीं.
 

दूसरी ओर यदि देखा जाये तो कांग्रेस, विपक्षियों और इसके प्रमुख नेताओं के साथ ही इंडी गठबंधन के नेताओं में भी आपसी मतभेद, भेदभाव और सीटों के मामले में सामंजस्य का अभाव अंतिम समय तक जारी रहा. हालांकि अबकी बार लगभग 300 सीट पर आमने-सामने की लड़ाई है लेकिन विपक्षी दलों ने अपने उम्मीदवार घोषित करने में भी बहुत ज्यादा देरी की जबकि भाजपा और एनडीए ने अपने अधिकांश उम्मीदवारों की घोषणा, चुनाव की औपचारिक घोषणा से बहुत पहले से करनी शुरू कर दी. 

 

एनडीए उम्मीदवार कहीं बढ़िया तरीके से अपनी रणनीति बनाने के साथ ही आम मतदाताओं से संपर्क करने में सफल रहे और उन्हें अपने क्षेत्र में घूमने का ज्यादा मौका मिला. परिणाम यही कि वे कहीं बेहतर तरीके से मुकाबला कर पा रहे हैं. जबकि कांग्रेस एवं विपक्षी दलों का अधिकांश समय आपसी संघर्ष और एक-दूसरे के पांव खींचने में ही गुजर गया. उन्हें रणनीति बनाने और आम लोगों से संपर्क करने के लिये वह समय भी नहीं मिल पाया जो विशेष रूप से नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने के लिये बहुत ज्यादा जरूरी था. 

 

भाजपा और एनडीए के सामने एक महत्वपूर्ण बात यह भी रही कि अधिकांश सीटों पर उम्मीदवारों की बजाय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि, उनके कार्य, उनकी उपलब्धियाँ और कमल का फूल ही छाया रहा. विशेष रूप से नये एमवाई (मुस्लिम और यादव नहीं) महिलाओं और युवाओं के समीकरण ने भाजपा एवं एनडीए का मार्ग काफ़ी आसान कर दिया और मतदान के ट्रेंड में इसे स्पष्ट देखा जा सकता है.
 

अब थोड़ा-सा गौर करते हैं भारतीय जनता पार्टी के संकल्प पत्र पर. 2024 के लोकसभा चुनाव के लिये यह उसका आधार तो बना और इससे उसे संजीवनी भी मिली लेकिन भाजपा के चुनाव अभियान को दवा की दो बूँद कांग्रेस के घोषणा पत्र या गारंटी से भी मिली जिसमें बहुत सारी वैसी बातें थी जिसने भाजपा और एनडीए के पक्ष में मतदाताओं की नये सिरे से गोलबंदी की.


मोदी का भाषण सबसे ज्यादा सटीक और रणनीति के साथ था. भाषणों में सरकार की उपलब्धियाँ तो थी पर विपक्ष की कारस्तानियाँ भी रही. साथ-साथ कटाक्ष भी था और विपक्षी दलों के नेताओं के आरोपों का जवाब भी. कंटेंट का लेवल इतना हाई कि न केवल रैली में मौजूद लोगों का जोश बढ़ जाये बल्कि वह पूरे लोकसभा क्षेत्र एवं चैनल्स और सोशल मीडिया के माध्यम से देश भर में फैल जाये. हर भाषण को वायरल करने की पूरी व्यवस्था भाजपा एवं एनडीए गठबंधन के साथ ही कांग्रेस और उसके इंडी अलायंस, दोनों ने की लेकिन इसमें कौन कितना सफल रहा... यह जगजाहिर है. बताने की बात नहीं.


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ ही अधिकांश भाजपा नेताओं, बीजेपी और एनडीए नेताओं का भाषण और रणनीति भी पूरे तरीके से सटीक और योजनाबद्ध थी जबकि कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ ही इंडी गठबंधन के प्रमुख नेता बिना इस बात का आकलन किये लोगों अर्थात अपने मतदाताओं के साथ संवाद करते रहे कि उसका लोगों के बीच कैसा इंपैक्ट जा रहा है?


सौ बात की एक बात यह भी है कि नरेन्द्र मोदी और भाजपा नेताओं को एक अच्छा भाषण देने के लिये सारा मेटेरियल कांग्रेस और उसके नेताओं के साथ ही इंडी अलायंस के नेताओं ने ही उपलब्ध कराया. इसके कारण मोदी और उनके पक्ष के नेताओं के भाषणों में नवीनता बनी रही. दूसरी ओर कांग्रेस एवं उसके गठबंधन के नेताओं का दायरा धीरे-धीरे सिमटता रहा.


ट्रिपल आर (राम, राशन और रिजर्वेशन) ने इस चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. उधर कांग्रेस और इंडी अलायंस का जोर 400 सीट के बल पर मोदी द्वारा संविधान बदलने, आरक्षण समाप्त करने, जातिगत जनगणना, लोगों की जातिगत स्थिति और उनकी संपत्ति का एक्सरे कर देश की संपदा के बंटवारे पर था. जिसकी जितनी भागीदारी उसकी उतनी हिस्सेदारी, कांग्रेसी नेताओं की नज़र में मिलियन डॉलर स्लोगन था.

 

उधर जैसे ही चुनाव के पहले दौर में भाजपा और मोदी के रणनीतिकारों को जाति, आरक्षण, संविधान जैसे मुद्दे की गंभीरता का अंदाजा लगा वैसे ही भाजपाई नज़रिये से पिच बदलनी जरूरी भी थी और मज़बूरी भी. कांग्रेस और इंडी गठबंधन यह भूल गया कि उसने फूल टॉस गेंद डाल दी है. अब उसे हर हाल में उसी पिच पर खेलना पड़ेगा जिसे तैयार करने में भाजपा को महारत हासिल है. हाजिरज़वाबी का जोड़ नहीं और अतीत में कांग्रेस की गलतियाँ इतनी कि उसका कोई तोड़ नहीं.

उधर इस पूरे चुनाव में अतिथि की भूमिका शुरू हो चुकी थी. स्वयं सैम पित्रोदा, मणिशंकर अय्यर, सलमान खुर्शीद की भतीजी और अन्य अनेक महानुभावों एवं देवियों की भी एंट्री हुई जिसने मोदी और उनके पक्ष के नेताओं को पूरा मेटेरियल उपलब्ध करा दिया. इसके कारण भाषणों में ट्विस्ट आ गया और कांग्रेस एवं विपक्षी गठबंधन के नेता चाहे जितना भी सिर पटकते रहें लेकिन अंतिम परिणाम उस दिशा में मुड़ चुका था जो शायद मोदी द्वारा स्क्रिप्टेड था. उन्हें पहले से पता था कि विपक्ष गलतियाँ करेगा ही करेगा.

नतीजा यही कि संविधान बदलने, आरक्षण हटाने जैसे नैरेटिव को ध्वस्त करने के लिये देश की सम्पदा पर अल्पसंख्यकों का पहला अधिकार सम्बंधित तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के वक्तव्य, विरासत टैक्स सम्बंधित सैम पित्रोदा के बयान और राहुल गाँधी के लोगों की सम्पदा के एक्सरे सम्बंधित दसियों भाषणों, विरोधियों के अनेक उल-जुलूल, आधारहीन, बिना सिर-पैर वाले और बिना किसी रणनीति के दिये गये भाषणों या वक्तव्य के साथ ही कांग्रेस के घोषणा पत्र को मिलाकर, भाजपा और मोदीजी ने ऐसा कॉकटेल तैयार किया कि विपक्ष उसके दायरे से अंतिम दम तक बाहर नहीं निकल सका.

मंगलसूत्र से शुरुआत के बाद मुजरे तक की यात्रा करनेवाले प्रधानमंत्री के भाषण में सभी कुछ मिला लेकिन सबसे ज़्यादा मिला विपक्ष को योजनाबद्ध और सटीक जवाब. उधर संविधान बदलने, आरक्षण हटाने, मोदीजी द्वारा अपने चहेते 20 उद्योगपतियों को लाभ पहुँचाने, उद्योगपतियों की 16 लाख करोड़ रूपये की माफ़ी, लक्षित घर की एक महिला को हर महीने साढ़े आठ हज़ार और साल के एक लाख रूपये देने (बीच का दो हज़ार रुपया किस खाते में जायेगा.. यह पता नहीं), बेरोजगार युवाओं को अप्रेन्टिसशिप के स्वरुप में एक लाख देने से शुरुआत कर विपक्ष की यात्रा ख़टाखट, फटाफट, सफाचट तक पहुँची.

कुल मिलाकर लब्बोलुआब यही कि पटकथा पहले से लिखी गयी थी और चाहे कोई भी दल या नेता हो. चाहे वह भाजपा और एनडीए का ही क्यों न हों लेकिन जाने-अनजाने सभी उसी पिच पर अपनी बैटिंग करते रहे जिसे बहुत ही खूबसूरत अंदाज में तैयार किया गया था.
बहरहाल भारतीय लोकतांत्रिक त्यौहार के इस सबसे बड़े कर्मकांड लोकसभा के आम चुनाव 2024 की सभी औपचारिकता लगभग पूरी की जा चुकी है और 4 जून का परिणाम यह बतायेगा कि इतनी अधिक मशक्कत से निकलने वाले परिणाम के बाद ऊंट किस करवट बैठेगा. वैसे मेरे दृष्टिकोण से यदि निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो समय की धार पर लिखी कहानी अब स्पष्ट रूप से पढ़ी जा सकती है.
एक बात और... चुनाव की घोषणा होने के बहुत पहले से ही भारतीय निर्वाचन व्यवस्था में जितने मतदाता हैं, उसमें से बहुत सारे स्वयं में चुनाव विश्लेषक भी बन जाते हैं जो पूरे विश्वास और दमखम के साथ परिणाम का आकलन करना शुरू कर देते हैं. इसमें जाति, धर्म, मुद्दे, सरकार की उपलब्धियाँ, विपक्षियों के साथ और भी बहुत सारी हजारों-हजार बातें होती है. यह भारतीय लोकतंत्र का सबसे सुखद पक्ष तो है लेकिन शायद सबसे ज्यादा दुख-तकलीफ की बात भी यही है कि हर एक क्षेत्र में आकलन के लिये विशेष ज्ञान की जरूरत होती है लेकिन यह ऐसा क्षेत्र है जिसमें 18 वर्ष की मतदान की आयु तो खैर बहुत दूर की बात है, उससे बहुत पहले से ही हर व्यक्ति विशेषज्ञ का रुतबा हासिल कर लेता है.

लेकिन कुछ लोग हैं जिनका पेशा ही कुछ यही है. इसके अलावा, पत्रकार, संपादक और विभिन्न न्यूज़ चैनल के एंकर भी हैं जो इस काम को बखूबी अंजाम देते हैं. अब उनमें से कितने विशेषज्ञ हैं... यह तो खैर राम जाने लेकिन आज हकीकत की जमीन पर सच्चाई यही है कि वैसे अनेक विशेषज्ञों ने अपने-अपने दलों के शीर्ष नेताओं और रणनीतिकारों के मन में वैसी बातें भर दी जिसके कारण उनकी रणनीति की दशा-दिशा भटक गयी और उसके स्थान पर केवल और केवल दिग्भ्रम ने अपना कब्ज़ा जमाया. 

नतीजा यह कि जैसे वे शिकार ही बन गये और उनकी वह सटीक रणनीति नहीं बन पायी जो आम लोगों को अपने पक्ष में करने और जमीन तैयार करने के लिये जरूरी था. निश्चित रूप से वैसे अनेक कथित चुनाव विशेषज्ञों का उद्देश्य पूरी तरीके से स्वार्थ से भरा होगा अर्थात अपने-अपने राजनीतिक दल से पैसा, ऐड लेना या अन्य स्वार्थ पूरा करना. उनका उद्देश्य तो पूरा हो गया और अब तो उनमें से कुछ ने अपना पाला बदलना भी शुरू कर दिया है.

लेकिन इसके कारण देश-दुनिया को सजाने-संवारने के साथ-साथ अपना करियर बनाने का सपना पालनेवाले अनेक राजनीतिक दलों के नेताओं या निर्दलीय प्रत्याशियों का करियर खुंटे पर टंग गया. लेकिन इसके लिये जिम्मेदार भी वैसे राजनीतिक दल के नेता ही हैं जिन्होंने उनका चयन किया और उन्हीं की बातों के आधार पर आगे बढ़ना भी जारी रखा.

नरेन्द्र दामोदरदास मोदी इस चुनाव का वह केन्द्रीय चरित्र रहा जिनके इर्द-गिर्द चुनाव घूमता रहा. चाहे आप मोदी से प्यार करें या नफरत लेकिन इनकार नहीं कर सकते. मोदीजी की सबसे बड़ी ताकत राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास व कल्याणकारी योजनाओं का सशक्त डिलीवरी सिस्टम रहा. अबतक तो यही लगता है कि मोदीजी का दामन थामनेवाले अधिकांश लोगों की नैया तो पार लग जायेगी पर दूसरी ओर खड़े अधिकांश उम्मीदवारों और नेताओं के आगे घने कोहरे वाले बादल हैं.

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