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कहने को तो बात थोड़ी अटपटी है लेकिन है सोलह आने सच. अभी के समय में जबकि पैसा एवं प्रतिष्ठा, अर्थात दौलत और इज्जत, किसी फरिश्ते की तरह ही काम करती है तो उस दौर में यह सारी बातें करना बेमानी ही है.

लेकिन फिर भी बातें लीक से हटकर.

हाल-फिलहाल अभी झारखण्ड की वरिष्ठ आईएएस अधिकारी पूजा सिंघल सुर्खियों में हैं. न केवल झारखण्ड में बल्कि पूरे देश में. 

अख़बार, मैगजीन्स, चैनल्स हों या फिर आम जनमानस. सभी को बहुत बढ़िया मैटेरियल्स मिल गया है. लिखने को, छापने को, दिखाने को और बातें करने को भी. परन्तु इसकी क़ीमत तो वही चुका रहा है जो आज, आज़ादी के सात दशक बाद भी पेट की ज्वाला शान्त करने की रोटी, तन ढँकने को कुछ कपड़े और अपने घर की छत के लिए संघर्ष कर रहा है. 

आज भी वह बस इतना ही चाहता है कि किसी तरह जीवन कट जाये. किसी तरह पेट भर जाये, बरसात में भींगना न पड़े. मतलब यह कि सपने ही बौने हो गये, घुन लग गया उसमें और किसी भी समाज, देश या व्यक्ति के खात्मे की शुरुआत ही होती है सपनों की मौत से.
दुर्भाग्यपूर्ण है ये.

एक दृष्टिकोण से आज केवल गड्डियों का बोलबाला है. अख़बार में छपती और चैनल में दिखती 500-2000 की सलीके से सजी या बेतरतीब तरीके से रखी गड्डियों की भीड़ में पहली नज़र में ये बात अप्रासंगिक लग सकती है लेकिन है बहुत मतलब की क्योंकि अंततोगत्वा यह उन सभी को प्रभावित करनेवाली है जो कि इस देश में या इस जमीन पर रहते हैं.

कहने को तो इसे आप चाहे दर्शनशास्त्र कह लें या फिर उच्च श्रेणी का समाजशास्त्र. लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि, शास्त्र-वास्त्र के अपने दायरे को लांघकर यह नकारात्मकता कब आपके दिमाग में प्रवेश कर जायेगा...? कोई नहीं जानता. बात तो यह भी है कि जिसे अपनी मूर्खता के कारण अधिकांश लोग अमृत समझ रहे हैं... वह ज़हर है ज़हर.

इसकी शुरुआत उन समाचारों का हमारे दिल-दिमाग में छा जाना है जो आज सुर्खियों में है. और आज की हेडलाइंस को यदि किसी पूजा-पाठ, अभिषेक-प्राची, सिंघल-झा-सिंह-सेन, पल्स-वल्स का मामला ही समझा जा रहा है तो ऐसी मानसिकता यह महसूस कराने के लिए काफी है कि, हमारी बुद्धि गयी तेल लेने. कितने अनाड़ी, कितने कच्चे और शायद कितने उचक्के हैं हममें से अधिकांश?

लकड़ी-डंडे, धारदार हथियार-औजार और फिर चक्के से अपनी यात्रा की शुरुआत कर या अपनी यात्रा में आगे बढ़ते हुए आदम जात के बच्चे ने सुपर कंप्यूटर तक का आविष्कार कर लिया लेकिन बुद्धि है कैलकुलेटर वाली ही. अपने भेजे में एक मोटी बात को नहीं घुसा पाये हैं अधिकांश लोग. 

आखिर हमें भगवान ने यह शरीर और यह दिमाग क्यों दिया? इसका उपयोग हमें कैसे और क्यों करना है? क्या हम धरती पर केवल भीड़ बढ़ाने और माल उगाने ही आये हैं और ऐसा कर कौन-सा चमत्कार करने वाले हैं हम? क्या यह जरूरी है कि, झारखण्ड की मिट्टी का तथाकथित फर्ज़ निभाने, आदम जात का क़र्ज़ चुकाने, सबका मनोरंजन करने आदि-आदि के लिये माल टापने के इस महा खेल या फिर विराट पूजा में शामिल होकर हम होटवार की शोभा बढ़ाये, फिर हॉस्पीटल-हॉस्पीटल खेलते हुए रिम्स-एम्स की दौड़ लगायें.
ये लक्षण अच्छे नहीं हैं.

सारी बुनियाद डालने के बाद अब आते हैं मुद्दे की बात पर. 15 नवम्बर 2000 को जब झारखण्ड की बुनियाद रखी जा रही थी तभी वहाँ सुदूर उत्तराखंड में किसी 18-19-20 साल की नवयुवती के मन में एक सपना पल रहा था. अपने सुनहरे भविष्य के लिये. ख़्वाब तो उन तीन करोड़ लोगों के मन में भी पल रहे थे जिन्हें यह लग रहा था कि जल, जंगल, ज़मीन, खान-खदान, पहचान आदि के नाम पर जिस झारखण्ड का गठन किया जा रहा है वह एक नहीं बल्कि, करोड़ों के महत्वकांक्षी सपनों को पूरा करेगा. 

तब शायद ही किसी को यह अंदेशा रहा होगा कि, अलग प्रदेश के रूप में अपने गठन के दो दशक बीतने के बाद भी न सिर्फ झारखण्ड के ख़्वाबों का खण्डहर हो जायेगा बल्कि अपनी आधारभूत जरूरतों के लिए भी एक बड़ी आबादी का संघर्ष बदस्तूर जारी रहेगा. ऊपर से नीम में करैला वाली बात यह भी है कि, अब यह झारखण्डी संघर्ष अपने सम्मान के लिए भी है और आत्मविश्वास के लिए भी.

वैसे तो आज भी वह परिवेश कायम है. लेकिन विशेष रूप से आज से ढाई-तीन दशक पूर्व के उस काल को याद किया जाये तो उस समय युवाओं में, भविष्य के संदर्भ में एक कल्पना बहुत आम थी. अलीट क्लास में भारत की सबसे ऊँची परीक्षा अर्थात, सिविल सर्विसेज परीक्षा में अपना जानदार-शानदार परफॉरमेंस. अधिकांश की नज़र में सिविल सर्विसेज परीक्षा की इमेज ऐसी है कि यदि कोई इस परीक्षा में शामिल हुआ और इसे क्वालीफाई कर लिया तो शायद इस धरती पर आने का संपूर्ण उद्देश्य पूरा हो गया और अखिल ब्रह्माण्ड को हमनें प्राप्त कर लिया. अब कुछ सोचने की बात ही नहीं. 

नाम-प्रतिष्ठा की बात तो छोड़ ही दीजिये, धन-दौलत भी बेशुमार, दहेज़ भी पूरा, खानदान का एक-एक मेंबर यहाँ तक कि घर का कुत्ता, बिल्ली और गाय भी सिंह और पूँछ उठाकर चलेगा. दुनिया में कम्बख्त हम ही अकेले, अलबेले और होशियार हैं. हम मतलब हिन्दी वाले. यहाँ खानदान में कभी या अभी भी माँ-बाप, दादा-दादी अपने चश्म-ओ-चिराग को नौकर बनाने की तैयारी कराते हैं. 

वह भी सिविलियन केटेगरी का सबसे बड़ा नौकर क्योंकि उन्हें पता है कि ऐसी नौकरी-चाकरी सफलतापूर्वक मिलने के बाद वह नौकर समाज का बाप बनेगा और लड़की हुई तो माई. और वैसे माई-बाप का मम्मी-डैडी या बहना-भाई कौन नहीं बनना चाहेगा? भरपूर फायदा और इसके साथ-साथ खानदान में चार चांद लग जाएंगे वह तो अलग की बात. बिल्कुल यही हुआ. पूजा सिंघल भी अलग नहीं थी. रट्टू पढ़ाकू तो खैर वह शुरू से ही थी. बिल्कुल बचपन से कॉलेज तक. 

अपने शुरुआती क्लास से लेकर विश्वविद्यालय जीवन तक हर बार रिजल्ट धाँसू. जितने नम्बर उसे अकेले आते थे उसमें दो लड़कियाँ और एक लड़के आसानी से पास कर जाते. पर वहाँ समाजवाद नहीं तो वह अव्वल रही. हमेशा.

समय बीतने के साथ-साथ धरती-आकाश, अखिल ब्रह्माण्ड, पूरे यूनिवर्स और मिल्की होल तक इस बात की गूँज फैल गयी कि मैडम पूजा में अनेक वैसे वांछित गुण हैं जो आज की दुनिया में बहुते जरूरी है विशेषकर तीन-पाँच, उड़न-छू, प्रॉपर लाइजनिंग, चौकड़ी टोली का गठन और सक्सेसफुल्ली टीम को लीड करना. झारखण्ड वैसे भी उर्वर है हर मामले में. नकारात्मक दृष्टि से कहूँ तो 15 नवम्बर 2000 को थोड़ी फसल रोपी गयी 3-5 वाली और आज वह फसल भी लहलहा रही है और इस मामले में पूजा सिंघल, झारखण्ड की एक सफल किसान भी हैं.

कुल मिलाकर बहुत अच्छा अकेडमिक बैकग्राउंड पूजा सिंघल का. लेकिन आज निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जो परिणाम सामने है उसमें न तो बुद्धिमता का कहीं नामोनिशान है न ही व्यावहारिता का. भले ही यूपीएससी के 2000 बैच का सिविल सर्विस एग्जाम उन्होंने पहली बार में ही निकाला हो, 21 वर्ष 7 दिन की आयु में इस एग्जाम को क्रैक करने के लिये लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स में अपना नाम दर्ज़ कराया हो, पर अब तो लगभग साबित हो गया कि यह किसी भी दृष्टि से न तो बुद्धिमता का प्रमाण है न ही नैतिकता का. बल्कि यह मानसिकता, यह आचार-व्यवहार और कुल मिलाकर सत्ता-शासन के शीर्ष पर बैठे लोगो का ऐसा आचरण, झारखण्ड और यहाँ के लोगों के लिये भी दुर्भाग्य ही है.

एक तरफ साढ़े 21 साल का झारखण्ड और दूसरी तरफ लगभग 21-साढ़े 21 साल पहले झारखण्ड के हज़ारीबाग में सदर अनुमंडल पदाधिकारी के रूप में पहली बार अपना दीदार करानेवाली आईएएस अधिकारी पूजा सिंघल. कुछ कहने की जरुरत नहीं.

मेरी नज़र में अँधेरी दुनिया का दरवाजा है आज की सिविल सर्विसेज. शायद यदि लॉर्ड मैकाले न होता, अंग्रेज न आते और भारत की परम्परागत शिक्षा पद्धति की दुर्गति कर केवल सिपाही और मुंशी को पैदा करने को सर्वोच्च प्राथमिकता देनेवाला लॉर्ड मैकाले का एजुकेशन सिस्टम न होता तो शायद आज यह करप्शन भी न होता और होता भी तो इतने घिनौने रूप में न होता. आज की व्यवस्था में रट्टा मारनेवाला और मक्खन लगानेवाला ही / भी हीरो है. भले ही कोई कुछ भी कहे परन्तु परिणाम आज सामने है. झारखण्ड की ज़मीन का भी और ईडी की रेड का भी.

लेकिन लोग विशेष रूप से दो कारणों से हंस रहे हैं. पहली बात तो ये कि झारखण्ड का ब्यूरोक्रेट्स भी देश के बाकी हिस्सों के मुकाबले बिल्कुल भी अलग नहीं है. अर्थात कुछ को छोड़ दें तो झारखण्ड में भी अधिकांश ब्यूरोक्रेट्स की न केवल अपने पॉकेट और अपनी तिजोरी को येन-केन-प्रकारेण भरने के ऊपर ही मजबूत निगाह है. 

चाहे इसके लिए उन्हें किसी की जी-हजूरी करनी पड़े या फिर नैतिकता की हर एक सीमा को लांघ जाना पड़े. लेकिन पैसा तो चाहिए. अपने इस तुच्छ सपने को हर हाल में पूरा करना है भले ही इसके लिए अपना नाम बदनाम हो और कुल मिलाकर झारखण्ड के तीन करोड़ लोगों के सपनों में जंग लगता है तो लग जाये लेकिन इच्छा तो पूरी होनी ही चाहिए.

आखिर उन नौनिहालों ने बहुत सारी कीमत जो चुकाई है. पढ़ाकू बनकर अपने जीवन का अधिकांश समय पढ़ने-लिखने में खपा दिया. फिर प्रैक्टिकल बनकर चमचागिरी, लाइजनिंग, जोड़-तोड़, सांठगांठ आदि की प्रॉपर ट्रेनिंग ली.

और परिणाम देख लीजिये.

झारखण्ड गठन को दो दशक हो गये. इस दौरान न जाने कितनी सरकारें आई और गयी लेकिन एक अधिकारी या कुछेक अधिकारी जो तब भी शीर्ष पर थे... अभी भी शीर्ष पर ही हैं. वैसे लोग जिनकी ट्यूनिंग हमेशा से परफेक्ट रही. सत्ता में चाहे कोई भी रहे लेकिन उनकी दुकान हमेशा चकाचक रही.

इस बात को भूल जाइये कि आज केवल पूजा सिंघल, इंफोर्समेंट डायरेक्टरेट के शिकंजे में है. हकीकत तो यह है कि, झारखण्ड में हममें से अधिकांश लोगों का दिमाग उसी जंजाल में कैद है. जिसके कारण पूरे झारखण्ड में जहाँ-तहाँ से रंगे हाथ भ्रष्ट सियार को पकड़ने की खबर रूटीन में है और बीस साल में पूजा का यह प्रसाद भले ही सभी को चौंका रहा हो. पर बीस साल में एक-से-बढ़कर एक पुजारी सत्ता-सिंहासन के आँगन में रहे.

भले ही कोई कुछ भी कहे लेकिन राजधानी में सीेए सुमन सिंह के सोनाली अपार्टमेंट से बरामद 17,49,87,200 रूपये और ईस्टर्न मॉल से 21,70,000 रूपये नकदी की बरामदगी के साथ पूजा सिंघल के और उनसे जुड़े लोगों के दसियों ठिकानों से अनेक अवांछित दस्तावेज मिलने के बाद बहुत कुछ परदे के बाहर आने की संभावना है. रांची के पल्स हॉस्पिटल के साथ ही पता नहीं कितने माननीयों, महोदयों आदि की हार्ट बीट बढ़ गयी है. 

लेकिन फिर भी आज जो मानसिकता भारत के साथ ही झारखण्ड के चप्पे-चप्पे में है वहाँ पूजा सिंघल, अभिषेक झा, सुमन सिंह आदि-आदि और इसके जैसे अनेक लोग हीरो की कैटेगरी में ही हैं क्योंकि उन्हें पैसों के लिए वह सब नहीं करना पड़ता जो रांची से पाकुड़-गोड्डा और दुमका से शिकारीपाड़ा तक, सरायकेला-खरसावां से झरिया और कोडरमा से चौका तक, अर्थात झारखण्ड के हर जगह आम लोगों को करना पड़ता है. सड़कों पर अपनी एडिया ही नहीं रगड़नी पड़ती बल्कि उसका अपना अधिकार भी उसे नहीं मिलता.

कांग्रेस की सरकार ने एक ज़माने में महात्मा गाँधी के नाम पर मनरेगा की शुरूआत की थी. इसका सर्वप्रमुख उद्देश्य, वैसे लोगों को रोजगार देना, उनका और उनके परिवार का पेट भरना था जो अपने जीवन की गाड़ी को खींचने में असमर्थ हैं. जब मोदी जी सत्ता पर काबिज हुए तो देर-सवेर, धीरे-धीरे, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर अर्थात लाभुकों के खाते में रकम को सीधे डालने की शुरुआत तो की गयी. 

लेकिन इस बीच बहुत कुछ खेला हो चुका था और अभी भी हो रहा है. जनता-जनार्दन के तथाकथित पालनहार अर्थात ब्यूरोक्रेट्स ने पॉलीटिशियंस को घुट्टी पिला रखी है और खुद भी पी है. तरह तरह के कारनामे किये गये. उन्हीं में एक है खूंटी में मनरेगा के 18 करोड़ का वारा-न्यारा होना जिसमें मैडम जी की गर्दन फँसी है.

आज के अखबारों की सुर्खियां यही बता रही है कि पूजा सिंघल को मच्छरदानी दी गयी, उन्हें बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार होटवार में रात किस प्रकार से गुजारनी पड़ी, बिसलेरी दी गयी, किस प्रकार से मच्छरों ने उन्हें परेशान कर दिया गुड नाइट जलानी पड़ी, उन्होंने किस प्रकार से खाना खाया, कैसे करवटें बदल-बदल कर रात काटी, मेलोसेट, नोदम, अल्प्रेक्सइन आदि दवाइयाँ मंगवानी पड़ी, ऐसे सारे-के-सारे समाचार सब्जी, चटनी, पापड़, अचार, भुजिया, सलाद आदि का ही काम कर रहे हैं और सारे लोग उसे चटखारे ले-लेकर पढ़ रहे हैं. 

अधिकांश पाठकों-दर्शकों के लिये ये नैसर्गिक आनन्द की बात है. सुखानुभूति है. लेकिन रोटी-दाल की बात यही है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने 12 दिनों के रिमांड पर माँगते हुए न्यायाधीश प्रभात कुमार शर्मा के सामने सिंघल मैडम को पेश किया और उसे 5 दिनों की रिमांड मिली. सुमन सिंह या अभिषेक झा पहले से गिरफ्त में हैं और अभी बहुत सारे लोग ईडी के शिकंजे में हैं जबकि बहुत सारे रसूखदार रडार पर आनेवाले हैं.

इस समूचे प्रकरण की बैकग्राउंड की बात की जाये तो, केंद्र सरकार ने झारखण्ड के वैसे आईएएस अधिकारियों का नाम मांगा था जिनके ऊपर भ्रष्टाचार के गंभीर मामले हैं. तब राज्य सरकार ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के चार अधिकारियों का नाम केंद्र सरकार को भेजा पर राजभवन ने उसमें सबसे ऊपर सात और अधिकारियों का नाम जोड़ दिया जो काफी रसूख वाले थे या हैं. 

उसमें सबसे ऊपर उस पूजा सिंघल का नाम था जो राजभवन के पिछवाड़े आलीशान सरकारी क्वार्टर में रहती हैं. किसी के लिये भले ही तिलिस्म हो पर खोजी पत्रकारों के साथ ही सामान्य पत्रकारों या आम जनमानस के लिए भी यह मामला जाना-पहचाना था. सभी को पता था कि पूजा सिंघल किस दमदार अधिकारी का नाम है. उनमें ऐसी कौन-कौन-सी खूबियां है कि सरकार चाहे कैलेंडर की तरह बदलती रहे लेकिन वह पेन स्टैंड की तरह उसी टेबल पर विराजमान हैं जहाँ जनता-जनार्दन के पालनहार अर्थात, हमारे माननीय उठते-बैठते हैं. 

लेकिन आधिकारिक रूप से शायद किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं होगा कि, जिस प्रकार से देश के प्रत्येक राज्य की राजधानी में राजभवन या राजनिवास है उसी तरीके से रांची के राजभवन के ठीक पीछे बूटी रोड में सरकारी क्वार्टर में रहनेवाली पूजा सिंघल के अनेक ठिकाने न केवल रांची बल्कि, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, बिहार जैसे अनेक प्रदेशों में भी हैं. जहाँ वैसे लोग रहते हैं जो न केवल इस काली कमाई को प्रश्रय देते हैं बल्कि उसी के बलबूते पर पलते-बढ़ते भी हैं जिसकी कीमत झारखण्ड और यहाँ के तीन करोड़ लोगों को चुकानी पड़ती है. उन लोगों को जो अपने उस सपने से दिन-प्रतिदिन दूर होते जा रहे हैं जो आज से, दो-ढाई-तीन दशक या, उससे भी पहले देखा गया था.

अब बात आती है फिर से उसी सुपर कंप्यूटर की जिसकी चर्चा मैंने शुरूआत में की थी. यदि पॉकेट में गर्मी हो और दूसरों को अपनी औकात दिखाने की इच्छा हो तो, उपयोग न होने पर भी सुपर कंप्यूटर खरीद लें और उसका प्रयोग पूरी तरीके से उस काम के लिए कर सकते हैं जो आसानी से केलकुलेटर से किया जा सकता है. यहाँ तो हुई खरीदने-बेचने वाली बात. पर भगवान ने ले-देकर एक ही भेजा दिया है, एक जिगरा है मतलब दिल और गुर्दा-करेजा, हाथ-टाँग, घुटना-एडी के साथ एक मस्त बॉडी. पर हाथ से मांग रहे हैं कैश और बिलायती मिनरल, घुटने पर खड़े हैं, एडी रगड़ रहे है, दिल तो वैसे ही या तो घायल है या नकदी के पीछे पागल है, कलेजा है ही नहीं जबकि गुर्दा गिरवी. भेजा तो वैसे ही फ्राई है.

जिस सुपर कंप्यूटर को भगवान ने दिया उससे रट्टा मारने का काम कर देश के सबसे बेहतरीन नौकर बनो, माई-बाप बनो लेकिन बाकी अंग-प्रत्यंग, दिल, दिमाग़, घुटना, एडी, हाथ-पैर का उपयोग शायद मसूरी में सिखाया जाता होगा. तभी तो कुछ ईंट-पत्थर को छोड़ दिया जाये तो पूजा सिंघल जैसे कोहिनूर बड़ी संख्या में पैदा लेते हैं.

कोई भी व्यक्ति, ईश्वर की एक अद्भुत कृति है. लेकिन अनेक लोग अपने तथाकथित बेहतर कैरियर की आड़ में क्षुद्र स्वार्थ की ही खेती करते हैं जहाँ न तो दिल में नैतिकता है न दिमाग़ में बुद्धिमता.

 व्यवहारिकता और जनकल्याण की कोई वैसी भावना नहीं जिसकी अपेक्षा न केवल किसी आईएएस बल्कि हरेक वैसे से की जाती है जिसने इस जमीन पर जन्म लिया है. सभी से अपेक्षा होती है कि यदि वह किसी का कल्याण करने की स्थिति में है तो वह सकारात्मक काम करें जिसका फायदा सभी को मिले. लेकिन अधिकांश सिविल सेवकों का रवैया और आज दिल्ली से सुदूर गाँव-देहात तक कायम आवोहवा तो इसी बात की गवाही देती है कि अधिकतर सिविल सर्वेन्ट की केवल चमड़ी का रंग बदला है. सर्वजनहित की भावना कहीं बहुत पीछे छूट गयी. कम-से-कम मेरी मोटी बुद्धि को तो यही लगता है.

आज तो जैसे, वैसे अधिकांश ब्रेन का एक ही उद्देश्य है. अपने पॉकेट को भरना और अपने पति-पत्नी, बेटे-बेटियों, माता-पिता, भाई-बहन, सास-ससुर या अन्य रिश्तेदारों, अपने सगे वालों को लाभान्वित करते हुए उस वातावरण को प्रोत्साहित करना जहाँ दिल में धब्बे ही धब्बे हैं.
पिछले लगभग 20 साल में पूजा सिंघल के हाथों में जिन महत्वपूर्ण विभागों और जिलों की कमांड रही उसके बलबूते पर झारखण्ड के लोगों के सपनों-आकांक्षाओं को पूरा करना और उनके जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की अहम जिम्मेदारी उनपर थी. 

लेकिन अब क्या करें वे लोग जो अपने-आप को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं. यहाँ बात केवल किसी पूजा की नहीं है. अभी तो सियासत और ब्यूरोक्रेट की इस सब्जी मंडी का केवल एक सड़ा हुआ फल सामने आया है. पता नहीं ऐसे कितने टमाटर, आलू, बैगन, कद्दू, सेव आदि सिहासन का हिस्सा हैं. लेकिन ये सड़े-गले, कच्चे-जहरीले फलों के बाज़ार में कट जनता ही रही है. आम जनमानस खामख्वाह अपने अच्छे भविष्य की आस लगाये बैठा है. 

इससे बेहतर तो यह होता कि शायद आम जनता को खुलेआम यह कह दिया जाता कि वह अपनी औकात पर अपने सपनों को पूरा कर सकती है तो कर ले. नहीं तो अपने जीवन का जो करना हो करें. शायद तब आज से बेहतर तस्वीर होती.

...और आज भी समय नहीं गुजरा क्योंकि एक बात तो निश्चित है कि वर्तमान सत्ता के दौर में पूजा सिंघल अकेली नहीं है. ऐसी बहुत सारी पूजा की थाली, प्रोजेक्ट बिल्डिंग और नेपाल हाउस के साथ ही प्रत्येक जिला समाहरणालय, प्रखण्ड-अंचल कार्यालयों और सरकार के सभी छोटे-बड़े कार्यालयों तक है. ये थालियां, दिल्ली से रांची तक टकटकी लगाकर इस बात को देख रही है कि कौन-सा कारू का खजाना कब प्रकट हो और वह अपना हिस्सा डकार ले या फिर पूरे खजाने को ही खा जाये? अब तो डर-भय, शर्म-हया को भी कितनों ने बेच खाया है. 

पहली बात तो यह है कि, काले मामले प्रकाश में आयेंगे ही नहीं और यदि आते भी हैं तो जब तक उसकी जाँच-पड़ताल या कार्रवाई होगी तबतक समय बहुत तेजी से गुजर जायेगा. क्योंकि क्वांटम फिजिक्स के अनुसार समय को तो गुज़र ही जाना है. जनता की मेमोरी भी कमजोर है और वह अप-टू-डेट भी नहीं. उसपर जितना भी चाबुक चला दिया जाये लेकिन वह सिंहासन और ब्यूरोक्रेट्स के अनेक माननीयों और महोदयों को अपने तारणहार और पालनहार के रूप में ही देखती रहेगी.

रामकसम... मेरी आशंका है कि वर्तमान चर्चित घोटाला सैकड़ों-हजारों करोड़ तक का भी हो सकता है. लेकिन एक पल को यदि मान भी लिया जाये कि मामला केवल 20 करोड, 50 करोड़, 100-200 करोड़ का है और ऑफिस में कुछ पैसों को इधर-उधर, ऊपर-नीचे करने के साथ ही कुछ जमीन-जायदाद का घपला-वपला किया गया है, कुछ लोगों या बहुत सारे लोगों को आंशिक रूप से या व्यापक तौर पर लाभ पहुँचाया गया, पक्षपात किया गया है और बहुत सारे लोगों के अधिकार को मारा गया है. 

पर यहाँ भी मैं यही कहूँगा कि झारखण्ड के आईएएस इस मामले में भी बहुत पीछे हैं. इस मामले को पिछले 20 साल में झारखण्ड का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार बताया जा रहा है. लेकिन यदि देश के मामले में देखा जाये तो यह बहुत पीछे है.

भारत में भ्रष्टाचार के नाले में अपना हाथ साफ करनेवाले आईएएस अधिकारियों की फेहरिस्त काफी लंबी है. भारतीय प्रशासनिक सेवा में अवांछित चरित्र और भ्रष्टाचारी आचरण वाले वैसे अधिकारियों में आंध्र कैडर के काकीनाडा में पदस्थापित डिप्टी ट्रांसपोर्ट कमिश्नर ए.मोहन से अप्रैल 2016 के अंतिम सप्ताह में 800 करोड रुपए से अधिक की संपत्ति बरामद की गयी. 

1971 बैच के दिल्ली कैडर के आईएएस एस.मलईचामी, 12 साल में 200 करोड़ रूपए की अवैध प्रॉपर्टी बनानेवाले और जांच से पहले ही दुबई भाग जानेवाले महाराष्ट्र कैडर के नितेश जनार्दन ठाकुर, 1971 में समान बैच के आईएएस पति-पत्नी अरविंद जोशी और टीनू जोशी, कभी नोएडा चेयरमैन के पद पर रही 1971 बैच की आईएएस अधिकारी नीरा यादव, केरल बैच के आईएएस टी.ओ.सूरज, हिमाचल प्रदेश कैडर के आईएएस अधिकारी सुभाष अहलुवालिया के अलावा कभी खनन मंत्रालय में रहे राकेश कुमार जैन भी प्रमुख हैं. यहां भी झारखण्ड रिकॉर्ड बनाने से चूक गया.

अब अंत में बातें कुछ सकारात्मक. ऐसा नहीं है कि सिविल सर्विस में केवल भ्रष्ट आईएएस ही हैं. ईमानदारी कम है पर समाप्त नहीं हुई.
कुछ ही साल के अपने आईएएस कैरियर के दौरान माल बनानेवाले और राजनेताओं के साथ ही व्यापारियों और हर एक खास वर्ग से अपना दबदबा कायम करनेवाले अधिकारियों के बीच देश के ईमानदार आईएएस अधिकारियों में जिसका नाम बहुत ही प्रमुखता के साथ लिया जाता है वह हैं 1991 बैच के हरियाणा कैडर के आईएएस अधिकारी अशोक खेमका जिन्होंने 24 साल में 54 तबादले तो झेले पर अपने रस्ते से अलग ना हुए. 

35 हजार करोड़ रूपये के डीएलएफ और रॉबर्ट वाड्रा की लैंड डील को उन्होंने ही उजागर किया था.

2008 में एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रेंनिंग इंस्टीट्यूट मैसूर में 100 करोड़ का घोटाला पकड़ने वाली कर्नाटक कैडर की आईएएस अधिकारी रश्मि वी महेश, अपने 27 साल के कैरियर में 25 तबादले को झेलने वाली 1991 बैच की तमिलनाडु कैडर की आईएएस अधिकारी यू. सगायम जिनके खाते में यह महत्वपूर्ण उपलब्धि है कि उन्होंने पेप्सी द्वारा दिये जानेवाले रिश्वत को नकार दिया. 

2009 में उनके बैंक खाते में केवल 7172 रूपये थे. महाराष्ट्र कैडर के यशवंत सोनावते, तमिलनाडु कैडर के अंशु मिश्रा, 22 वर्षों में 20 तबादलों का सामना करनेवाले केरल कैडर के नागराज स्वामी, 9 साल में 12 तबादला झेलनेवाले महाराष्ट्र कैडर के तुकाराम मुंडे, नागालैंड की जेमे ट्राइब्स के पहले आईएएस 2008 बैच के आर्मस्ट्रॉन्ग पेने जिन्होंने सोशल मीडिया पर अभियान चलाकर 40 लाख रुपये एकत्रित किये और नागालैंड से आसाम के बीच 100 किलोमीटर सड़क का निर्माण करवाया.

इसके अलावा उत्तर प्रदेश में अवैध खनन पर रोक लगाने वाली दुर्गा शक्ति नागपाल, कर्नाटक के कोलार में अवैध खनन पर रोक लगानेवाले डी.के.रवि प्रमुख हैं.

ईमानदारी से बेमिसाल उपलब्धियाँ हासिल करनेवाले वैसे अनेक अधिकारियों के द्वारा प्रदर्शित क्रियाकलाप आज भी माइलस्टोन है. लेकिन किसी का भी ध्यान उसपर आसानी से नहीं जाता या फिर उसे उतना महत्त्व नहीं मिल पाता.

लेकिन अपनी पूरी फिलासफी, साइकोलॉजी और प्रैक्टिकल. चाहे जो भी हो लेकिन एक ही बात. 15 नवंबर 2000 को झारखण्ड गठन के बाद 8000 से अधिक दिवस गुजर गये और 6 महीने बाद झारखण्ड अपना स्थापना दिवस मनायेगा. लेकिन, वंचितों-पिछड़ों एवं आदिवासियों के सपने को पूरा करने के नाम पर गठित भारत के 28 वें प्रदेश झारखण्ड के करोड़ों लोगों का वह सपना कब पूरा होगा जिसके लिये इसका गठन किया गया? 

वह ख़्वाब चाहे जब पूरा हो पर आज हक़ीक़त यही है कि सपनों के सौदागरों ने उस सपने के साथ ही झारखण्ड की मान-प्रतिष्ठा को भी न केवल बेच दिया बल्कि चूल्हे में झोंक दिया.

(लेखक एक जानेमाने लेखक हैं)
 

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