*कुछ पंक्तियाँ ऐसी जो कड़वी तो है पर पढ़ना बहुत जरूरी है अपने जीवन, परिवार और बेहतर स्वास्थ्य के लिये.....
ना केवल कायस्थों बल्कि सभी के लिये
क्योंकि श्री चित्रगुप्त सभी के हैं.....
बिना किसी भेदभाव के.....

यम द्वितीया चित्रगुप्त की पूजा,
हम तो साल बीस-बाइस में हैं.
आओ देखें अपनी धरोहर,
वो सारे किस हाल में हैं?

उसपर पहरा, लगा दो गहरा,
अब वह नहीं लुटने पाये.
तुम पैसे पर मारो कुंडली,
हम अब अपनी बुद्धि बचायें.

गाड़ी-बंगला-बैलेंस बैंक का,
तुम उसके रखवाले हो.
पर तेरे लिये बुद्धि पर मेरी,
जैसे पड़ गये ताले हों.

तुम पैसे का खेल... खेल लो,
मैं बुद्धि पर धार चढ़ाता हूँ.
तुम यूँ ही मदहोश रहो,
मैं गुण चित्रगुप्त के गाता हूँ.

खेल तो अब बस जमकर होगा,
फिर मचेगा नया धमाल.
किसमें ताकत... किसकी क्षमता,
मिलियन डॉलर का यही सवाल.

शंख बजा है.. बिगुल बजेगा..
रणभेदी की चाहत है.
आवाज उसी की सुन-सुनकर,
हृदय में मेरी राहत है.

जिंदा रहना है गर मुझको,
आज जरा-सा मरना होगा.
दिल-दिमाग में दिया जलाकर,
आज बहुत कुछ करना होगा.

बात ज़रा-सी कड़वी है पर,
मुर्दों की बस्ती में हूँ.
जिंदा अगर उन्हें करना है,
जंग से ना अब डरना होगा.

अपनी धरोहर को दो सम्मान,
उसी से है तेरी पहचान.
सहेज रहा मैं कलम-किताब,
तुम गड्डी का रखना ध्यान.

बस हाथ जोड़कर करूँ प्रार्थना,
अपने हेल्थ का ध्यान रखो.
जिंदा रहना बहुत जरूरी,
जिंदा अपनी पहचान रखो.

नानवेज, दारु, सिगरेट का चक्कर,
ऊपर से फ्रॉड का ठप्पा है.
इन सबके घनचक्कर में तूने,
खुद को मारा धक्का है.

हार्ट-ब्रेन-किडनी को अपनी,
ऐसा नाच नचाया है.
गलत की फहमी खुद ही पाल,
अपना बैंड बजाया है.

मदहोशी में लुट-पिटकर जब,
नींद तुम्हारी खुलती है.
दिमाग़ की बत्ती बुझी पड़ी जो,
मुश्किल से वो जलती है.

समझ रहे तुम सबको उल्लू,
पर अव्वल नालायक हो.
ना सुर है और ना ही ताल,
तुम यह समझते गायक हो.

नहीं चाहता यह सब कहना,
पर मेरी मजबूरी है.
चित्रगुप्त की पूजा की है मैंने,
कहना बहुत जरूरी है.

समय का घंटा जब भी बजेगा,
अफ़सोस नहीं मुझको होगा.
सच से क्यूँ था तब मुँह मोड़ा,
रोष नहीं मुझको होगा.

जीवन अद्भुत सुंदर प्यारा,
तूने उल्टी धार है दी.
तुम यह समझते तुम हो हीरो,
पर खुद को बीमारी थी.

जीवन की कविता या खटराग,
या मुझको कह दो झोलाछाप.
बात को मेरी चबा-चबाकर,
दिल-दिमाग से सोचो आज.

लोग वो कुछ... बातें की ऐसी,
मेरे हृदय को खटका था.
मैं पागल-बेवकूफ-कमीना,
मेरे लिये वह झटका था.

दुनिया समझे मुझको पागल,
मैं कहता दुनिया है पागल.
पागलपन के चक्कर में सब,
दारु को कहते गंगाजल.

अपनी क्षमता कलम की शक्ति,
चित्रगुप्त की भक्ति है.
मौन में रहकर देख रहा हूँ,
सबपर कितनी मस्ती है.

अपनी हस्ती को भूल गये हैं,
चित्रगुप्त के घर के चिराग.
इसकी टोपी उसके सिर कर,
मुँह से निकल रहा है झाग.

बातों का कोई वजन नहीं,
कोई किसी-से कम भी नहीं.
पॉकेट में सबके पड़ा है माल,
हॉस्पिटल में सभी बेहाल.

जीवन बना जुआ का खेल,
दिल-दिमाग सब हार रहे.
सबकुछ हार के पाया पैसा,
फिर भेजे में बत्ती जला रहे.

ओखली में पड़ी है इज्जत,
दिमाग खोखला घूम रहा.
कंगाल दिल से बहते आँसू,
पर मोटा पॉकेट झूम रहा.

जंग अभी तो बहुत है बाकी,
हिम्मत से अपनी यारी है.
समझने वाले समझ रहे हैं,
ना समझे... वो अनाड़ी हैं.

फिर मिलेंगे बीस-तेइस में,
देखेंगे कितनी शक्कर है.
तीन-पाँच के चक्कर में,
कोई कितना बड़ा सिकंदर है?

लॉर्ड मैकाले को पढ़-पढ़कर,
मुंशी बनकर घूम रहे,
आये थे बैठने सिंहासन पर,
दरबारी बनकर झूम रहे.

(संतोष दीपक एक लेखक हैं)
 

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