जनवरी 5, 2018, पश्चिम में योग के पिता, श्री श्री परमहंस योगानन्दजी की 125वीं जयंती है, जो आधुनिक आध्यात्मिक गौरवग्रंथ योगी कथामृत (Autobiography of a Yogi) के लेखक हैं, तथा जिनके जीवन पर एक अत्यधिक प्रशंसित वृत्तचित्र, AWAKE: The Life of Yogananda (2014) का निर्माण हुआ है।

हमारे समय के प्रमुख आध्यात्मिक विभूतियों में से एक के रूप में व्यापक रूप से जाने गये, श्री योगानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका और दुनिया के आध्यात्मिक परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ दी, और अपने सार्वजनिक व्याख्यानों, लेखनों तथा स्थापित किये धर्मार्थ, आध्यात्मिक संस्थाओं योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (वाइएसएस/एसआरएफ़)--जिसके दुनिया भर में 800 मंदिर, ध्यान केंद्र और रिट्रीट हैं--के द्वारा भारत के वैदिक दर्शन की व्यापक जागरूकता और प्रशंसा में योगदान दिया।
श्री योगानन्द की शिक्षाओं के मूल में क्रियायोग का पवित्र विज्ञान है, जो राजयोग का एक रूप है, और जो शरीर एवं मन दोनों को शांत करने का कार्य करता है, और इस प्रकार व्यक्ति के लिये विचारों, भावनाओं तथा संवेदनाओं के आम तौर पर रहने वाले हलचल से उसकी ऊर्जा एवं एकाग्रता का प्रत्याहार करना संभव बनाता है। उस आंतरिक शांति की स्पष्टता में, व्यक्ति अपने सच्चे स्वरूप के साथ अपनी गहराती भीतरी शांति तथा एकात्मता का अनुभव करता है।

श्री योगानन्द का बहु लोकप्रिय आध्यात्मिक गौरवग्रंथ, योगी कथामृत (Autobiography of a Yogi), जिसने लाखों पाठकों को ध्यानयोग के दर्शन तथा अभ्यास से परिचित करवाया है, और जिसका लगभग 50 भाषाओं में अनुवाद हुआ है, योग एवं पूर्वी आध्यात्मिक विचार पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और सबसे पठनीय ग्रंथ बना हुआ है। श्रीमद्भगवद्गीता (ईश्वर-अर्जुन संवाद), चारों सुसमाचारों (The Second Coming of Christ: The Resurrection of the Christ Within You), एवं उमर खय्याम की रुबाइयाँ (Wine of the Mystic: A Spiritual Interpretation) पर उनकी अत्यधिक प्रशंसित टीकायें, पूर्व और पश्चिम के धार्मिक विश्वासों की अंतर्निहित एकता पर अभूतपूर्व अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं।
परमहंस योगानन्द पहली बार 1920 में बॉस्टन, मैसेच्युसेट्स में आयोजित धार्मिक उदारवादियों के एक अंतर्राष्ट्रीय सभा में एक प्रतिनिधि के रूप में भारत से अमेरिका पहुँचे। उसी साल उन्होंने भारत के प्राचीन दर्शन और ध्यान के विज्ञान पर अपनी शिक्षाओं को प्रसारित करने के लिये सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना की।

1925 में, श्री योगानन्द ने लॉस एंजेलिस में निवास किया, जहाँ उन्होंने अपने संगठन के लिये एक अंतर्राष्ट्रीय मुख्यालय स्थापित किया। अगले दशक के दौरान उन्होंने उत्तर अमेरिका और यूरोप के प्रमुख शहरों में खचाखच भरे दर्शकों से वार्ता करते हुए बड़े पैमाने पर यात्रा की और व्याख्यान दिये। उनके व्याख्यान में भाग लेने वाले हज़ारों पश्चिमी निवासियों के लिये, "जीसस क्राइस्ट की मूल शिक्षाओं और भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा सिखाये गया मूल योग" की एकता पर उनके प्रवचन एक रहस्योद्घाटन थे। सार्वजनिक प्रशंसा में वृद्धि ने राष्ट्रपति केल्विन कूलिज को जनवरी 1927 में व्हाइट हाउस में एक व्यक्तिगत बैठक के लिये श्री योगानन्द को आमंत्रित करने के लिये प्रेरित किया, जिससे किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के साथ भेंट करने वाले वे पहले स्वामी बने।

विज्ञान, व्यवसाय और कला क्षेत्र की कई प्रमुख हस्तियाँ उनके शिष्य बन गये जिनमें उद्यान विशेषज्ञ लूथर बरबैंक, ऑपेरेटिक सोप्रानो अमेलिता गैली-कर्सी, जॉर्ज ईस्टमैन (कोडेक कैमरे के आविष्कारक), कवि एडविन मार्खम और सिम्फनी कंडक्टर लियोपोल्ड स्टोकोस्की शामिल थे। बाद में, बीटल के जॉर्ज हैरिसन, लोक संगीत गायिका जूडी कोलिन्स और पॉप सुपरस्टार मैडोना ने प्रत्येक सार्वजनिक रूप से अपने जीवन पर श्री योगानन्द के प्रभाव को स्वीकार किया। एप्पल के दिवंगत संस्थापक स्टीव जॉब्स ने मरणोपरांत योगी कथामृत पुस्तक की ओर ध्यान आकृष्ट किया जब उन्होंने अपनी श्रद्धांजलि सेवा में उपस्थित लोगों में इस पुस्तक की प्रतियाँ बंटवाने की व्यवस्था की।

परमहंस योगानन्द का जन्म 5 जनवरी, 1893 को भारत के गोरखपुर में, एक समृद्ध और धर्मपरायण बंगाली परिवार में हुआ था। उनका नाम मुकुंद लाल घोष था। उनके शुरूआती वर्षों से यह उनके आस-पास के लोगों को यह पता चल गया था कि आध्यात्मिकता का उनका बोध एवं अनुभव, सामान्य से परे थे। एक युवा के रूप में उन्होंने भारत के कई संतों और दार्शनिकों के दर्शन किये, इस आशा में कि उनकी आध्यात्मिक खोज में मार्गदर्शन करने के लिये उन्हें एक प्रबुद्ध गुरु प्राप्त होगा।
1910 में, 17 वर्ष की आयु में, उनकी भेंट सम्मानित भारतीय ऋषि स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी से हुई, जिनके आश्रमों में उन्होंने अपने जीवन के अगले दस वर्षों का अधिकांश हिस्सा बिताया। 1915 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद, वे भारत के सम्मानित संन्यासी संप्रदाय के एक स्वामी बन गये, जिस समय उन्होंने योगानन्द नाम प्राप्त किया (जो योग या दिव्य मिलन के माध्यम से आनंद प्राप्त करने का अर्थ देता है)।

योगानन्दजी ने 1917 में एक "आदर्श-जीवन" विद्यालय की स्थापना के साथ अपने कार्य की  शुरूआत की जिसमें आधुनिक शैक्षणिक तरीकों के साथ योग प्रशिक्षण और आध्यात्मिक आदर्शों में निर्देश को जोड़ा गया था। 1925 में इस विद्यालय का अवलोकन करने के बाद महात्मा गांधी ने लिखा : "इस संस्था ने मेरे मन को बहुत प्रभावित किया है।"

महात्मा गांधी और परमहंस योगानन्द एक दशक बाद मिले जब 1935-36 में योगानन्दजी लौट कर भारत आये। महात्मा के अनुरोध पर, योगानन्दजी ने उन्हें और उनके कई अनुयायियों को क्रियायोग के आध्यात्मिक विज्ञान में दीक्षा प्रदान की।
1930 के दशक के दौरान, श्री योगानन्द ने व्यापक सार्वजनिक व्याख्यानों से कुछ हद तक स्वयं को दूर करना शुरू किया ताकि अपने लेखनों, सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप मंदिरों तथा ध्यान केंद्रों की स्थापना, और एसआरएफ़ संन्यासी संप्रदाय की स्थापना, तथा उनके आध्यात्मिक एवं धर्मार्थ कार्य के भविष्य को एक ठोस नींव पर स्थापित करने के लिये वे स्वयं को समर्पित कर सकें। उनके मार्गदर्शन में, उनकी कक्षाओं के छात्रों को दिये गये व्यक्तिगत मार्गदर्शन तथा निर्देश को घर में पढ़ने के लिये वाइएसएस/एसआरएफ़ पाठमाला की एक व्यापक शृंखला में व्यवस्थित किया गया।

आज, अपने अध्यक्ष स्वामी चिदानन्द के मार्गदर्शन में, योगदा सत्संग सोसाइटी (सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप) परमहंस योगानन्द तथा उनके निकट शिष्यों के लेखनों, व्याख्यानों तथा अनौपचारिक वार्ता को प्रकाशित करती है, श्री योगानन्द की शिक्षाओं पर ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग निकालती है, अपने मंदिरों, ध्यान केन्द्रों, रिट्रीटों और बच्चों के कार्यक्रमों की देखरेख करती है, शहरों में वार्षिक व्याख्यान तथा कक्षाओं की शृंखला आयोजित करती है, तथा विश्यव्यापी प्रार्थना मण्डल, जो शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक सहायता चाहने वाले लोगों एवं वैश्विक शांति और सद्भाव के लिये प्रार्थना करने में समर्पित समूहों तथा व्यक्तियों का एक नेटवर्क है, का समन्वय करती है। 
परमहंस योगानन्द का निधन लॉस एंजेलिस में 7 मार्च, 1952 को अमेरिका में भारत के राजदूत डॉ. बिनय आर. सेन के सम्मान में आयोजित एक भोज में उनके भाषण की समाप्ति पर हुआ। उनके निधन का प्रेस में व्यापक कवरेज हुआ जिसमें न्यूयॉर्क टाइम्स, लॉस एंजेलिस टाइम्स, और टाइम पत्रिका शामिल थे।

1977 में, परमहंस योगानन्द के देहत्याग की पचीसवीं वर्षगांठ के अवसर पर, भारत सरकार ने औपचारिक रूप से उनके सम्मान में एक स्मारक टिकट जारी करके मानवता के आध्यात्मिक उत्थान के लिये उनके उत्कृष्ट योगदान को मान्यता दी।
2017 के मार्च महीने में, भारत सरकार द्वारा एक दूसरा स्मारक टिकट जारी किया गया, जो कि योगदा सत्संग सोसाइटी के शताब्दी वर्ष पर इसकी उत्कृष्ट उपलब्धियों का उल्लेख करता है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 7 मार्च, 2017 को नई दिल्ली में विज्ञान भवन में आधिकारिक डाक टिकट विमोचन समारोह के दौरान कहा, "[परमहंस योगानन्द] के जीवन को देखते हुए यह स्पष्ट है कि वे केवल बाहरी स्वतंत्रता के तरीकों पर ही जोर नहीं देते हैं, परन्त आंतरिक यात्रा पर जोर देते हैं।... कठोर सिद्धांतों को हटा कर, उन्होंने आध्यात्मिकता को इतना सुलभ तथा वास्तविक बना दिया, कि उनके द्वारा शुरू किये जाने के इन सौ वर्षों में, उनका कार्य एक विश्वव्यापी आंदोलन, आध्यात्मिक समझ का एक चिरस्थायी संसाधन बन गया है।"

पूर्व और पश्चिम को जोड़ने तथा परमात्मा के साथ अपने संबंध के विकास द्वारा विश्व शांति को बढ़ाने में अपने पूरा जीवन समर्पित करने वाले, श्री योगानन्द ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ''विश्व बंधुत्व'' एक विस्तृत शब्द है, लेकिन मनुष्य को अपनी सहानुभूति का विस्तार करना चाहिये, विश्व नागरिक के आलोक में स्वयं को देखना चाहिये। वह जो वास्तव में समझता है कि 'यह मेरा अमेरिका, मेरा भारत, मेरी फिलीपींस, मेरा यूरोप, मेरा अफ्रीका, आदि है,' उसके लिये कभी भी एक उपयोगी और सुखी जीवन का अभाव नहीं रहेगा।"

परमहंस योगानन्द और योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया के बारे में अधिक जानकारी के लिये www.yssofindia.org पर जाएँ।
 

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