*स्केच : प्रभात ठाकुर, कला निर्देशक, बॉलीवुड

अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ भारत के स्वतंत्रता संग्राम के नायाब योद्धा हैं। ऐसे दौर में जब अंग्रेजों की हिंदू मुस्लिम को बांटने की नीति सफल हो रही थी उसमें अशफाकउल्ला उनके झांसे में नहीं आने वाले लोगों में शामिल थे। इतना ही नहीं उन्होंने आजादी की लड़ाई में अपने हिंदू साथियों से कंधे से कंधा मिला कर अंग्रेजों को नानी याद दिला दी।

इनका जन्म उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में 22 अक्टूबर 1900 को हुआ था। उनके पिता मोहम्मद शफीक उल्ला ख़ाँ और माँ मजहूरुन्निशाँ बेगम थीं। अशफ़ाक़ ने स्वयं अपनी डायरी में लिखा है कि जहाँ एक ओर उनके बाप-दादों के खानदान में एक भी ग्रेजुएट होने तक की तालीम न पा सका वहीं दूसरी ओर उनकी ननिहाल में सभी लोग उच्च शिक्षित थे। उनमें से कई तो डिप्टी कलेक्टर व एस. जे. एम. (सब जुडीशियल मैजिस्ट्रेट) के ओहदों पर मुलाजिम भी रह चुके थे।

बचपन से इन्हें खेलने, तैरने, घुड़सवारी और बन्दुक चलने में बहुत मजा आता था। इनका कद काठी मजबूत और बहुत सुन्दर थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन में बहुत रूचि लेते थे। अपने चार भाइयो में अशफाकुल्ला सबसे छोटे थे। उनके बड़े भाई रियासत उल्लाह खान पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के सहकर्मी थे। जब मणिपुर की घटना के बाद बिस्मिल को भगोड़ा घोषित किया गया तब रियासत अपने छोटे भाई अश्फाक को बिस्मिल की बहादुरी के किस्से सुनाते थे।

बिस्मिल से मुलाकात
1922 में जब असहयोग आन्दोलन अभियान शुरू हुआ और जब बिस्मिल ने शाहजहाँपुर में मीटिंग रखी थी। यहीं अशफाकुल्ला की मुलाकात बिस्मिल से हुई थी ।धीरे धीरे संपर्क बढ़ा तो उन्होंने बिस्मिल को यह भी बताया की वे अपने उपनाम 'वारसी' और 'हसरत' से कविताये भी लिखते है। बाद में उनके दल के भरोसेमंद साथी बन गए। कई बार तो बिस्मिल और अश्फाक मुशायरों में साथ साथ शायरी भी करते थे।

हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक
एक बार शाहजहाँपुर में हिन्दू और मुसलमान आपस में झगड़ गए और मारपीट शुरू हो गयी। उस समय अशफाक बिस्मिल के साथ आर्य समाज मन्दिर में बैठे हुए थे। कुछ मुसलमान मंदिर पर आक्रमण करने की फ़िराक में थे। अशफाक ने फ़ौरन पिस्तौल निकाल ली। गरजते हुए बोले 'मैं भी कट्टर मुस्लमान हूँ लेकिन इस मन्दिर की एक एक ईट मुझे प्राणों से प्यारी हैं। मेरे लिये मंदिर और मस्जिद की प्रतिष्ठा बराबर है। अगर किसी ने भी इस मंदिर की ओर नजर उठाई तो मेरी गोली का निशाना बनेगा। अगर तुम्हें लड़ना है तो बाहर सड़क पर जाकर खूब लड़ो।' यह सुनकर सभी के होश उड़ गए और किसी का साहस नहीं हुआ कि उस मंदिर पर हमला करे।

राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ की दोस्ती :

चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने असयोग आंदोलन वापस ले लिया था, तब हजारों की संख्या में युवा खुद को धोखे का शिकार समझ रहे थे। अशफ़ाक उल्ला खां उन्हीं में से एक थे। उन्हें लगा अब जल्द से जल्द भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति मिलनी चाहिए। इस उद्देश्य के साथ वह शाहजहांपुर के प्रतिष्ठित और समर्पित क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल के साथ जुड़ गए।आर्य समाज के एक सक्रिय सदस्य और समर्पित हिंदू राम प्रसाद बिस्मिल अन्य धर्मों के लोगों को भी बराबर सम्मान देते थे। वहीं दूसरी ओर एक कट्टर मुसलमान परिवार से संबंधित अशफ़ाक उल्ला खां भी ऐसे ही स्वभाव वाले थे। धर्मों में भिन्नता होने के बावजूद दोनों का मकसद सिर्फ देश को स्वराज दिलवाना ही था। यही कारण है कि जल्द ही अशफ़ाक, राम प्रसाद बिस्मिल के विश्वासपात्र बन गए। धीरे-धीरे इनकी दोस्ती भी गहरी होती गई।

काकोरी कांड

जब क्रांतिकारियों को यह लगने लगा कि अंग्रेजों से अहिंसक आंदोलनों के बल पर देश से भगाना संभव नहीं है उन्होंने विस्फोटकों और गोलीबारी का प्रयोग करने की योजना बनाई। इस समय जो क्रांतिकारी विचारधारा विकसित हुई वह पुराने स्वतंत्रता सेनानियों और गांधी जी की विचारधारा से बिलकुल उलट थी। लेकिन इन सब सामग्रियों के लिए अधिकाधिक धन की आवश्यकता थी। इसीलिए राम प्रसाद बिस्मिल ने अंग्रेजी सरकार के धन को लूटने का निश्चय किया। उन्होंने सहारनपुर-लखनऊ 8 डाउन पैसेंजर ट्रेन में जाने वाले धन को लूटने की योजना बनाई। 9 अगस्त, 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफ़ाक उल्ला खां समेत आठ अन्य क्रांतिकारियों ने काकोरी में इस ट्रेन को लूटा।

बौखलाई ब्रिटिश सरकार ने जांच शुरू कराई। एक महीने तक CID ने सुबूत जुटाए और बहुत सारे क्रांतिकारियों को एक ही रात में गिरफ्तार किया। 26 सितंबर 1925 को पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को भी गिरफ्तार कर लिया गया। पर अशफाक बनारस भाग निकले। जहां से वो बिहार चले गए। वहां वो एक इंजीनियरिंग कंपनी में दस महीनों तक काम करते रहे। वो गदर क्रांति के लाला हरदयाल से मिलने विदेश भी जाना चाहते थे।

अपने क्रांतिकारी संघर्ष के लिए अशफाक उनकी मदद चाहते थे। इसके लिए वो दिल्ली गए जहां से उनका विदेश जाने का प्लान था। पर उनके एक अफगान दोस्त ने धोखा दे दियाऔर अशफाक को गिरफ्तार कर लिया गया।

ब्रिटिश शासन ने उनके ऊपर अभियोग चलाया और 19 दिसम्बर सन् 1927 को उन्हें फैजाबाद जेल में फाँसी पर लटका दिया गया।

क्रांतिकारी शायरी का उदाहरण देखिए

कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएँगे,
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे।

हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से,
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।

बेशस्त्र नहीं है हम, बल है हमें चरखे का,
चरखे से जमीं को हम, ता चर्ख गुँजा देंगे।
परवा नहीं कुछ दम की, गम की नहीं, मातम
की, है जान हथेली पर, एक दम में गवाँ देंगे।

उफ़ तक भी जुबां से हम हरगिज न निकालेंगे,
तलवार उठाओ तुम, हम सर को झुका देंगे।
सीखा है नया हमने लड़ने का यह तरीका,
चलवाओ गन मशीनें, हम सीना अड़ा देंगे।

दिलवाओ हमें फाँसी, ऐलान से कहते हैं,
खूं से ही हम शहीदों के, फ़ौज बना देंगे।

मुसाफ़िर जो अंडमान के तूने बनाए ज़ालिम,
आज़ाद ही होने पर, हम उनको बुला लेंगे।
#अशफ़ाक_उल्ला_खाँ

 

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