वैसी कहावतें बहुत सारी है जो हमारी कुण्डली के साथ ही ग्रह-नक्षत्र भी सुधार दे. पर उसके लिये पढ़ना पड़ता है. लिखना, सोचना, बातें करना, किसी दूसरे की या अपनी ही गलतियों से सीखना भी पड़ता है. उपलब्धियों को पचाने की औकात भी चाहिये. स्वार्थी, अदूरदर्शी, अनैतिक, सिद्धांतविहीन लोगों से बचने की कला भी जरूरी है जबकि इससे उलट के लोगों को अपने पास खींचने, उनसे प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित करने वाला आकर्षक व्यक्तित्व या फिर नेतृत्व कौशल भी चाहिये.

इस मामले में झारखण्ड और हम झारखण्डी उतने सौभाग्यशाली नहीं हैं.

झारखण्ड के कुछेक मुख्यमंत्री को छोड़ दें तो लगभग सभी बहुत अच्छे व्यक्तित्व वाले हैं लेकिन बिना रीढ़ और बिना हड्डी वाले चमचों के साथ ही कुछेक अधिकारियों की चौकड़ी ने डुबोया है उन्हें. इसके लिये जिम्मेदार सम्बंधित मुख्यमंत्री ही हैं जिन्होंने अपने सलाहकारों के चयन के दौरान अपनी लापरवाही, अनुभवहीनता एवं अदूरदर्शिता का परिचय जमकर दिया.

कभी कैलेंडर की तरह सरकार बदलने के मामले में झारखण्ड की पूरे देश में ख्याति थी. अब पता नहीं यह इस मामले में विख्यात था या कुख्यात था पर एक बार अमिताभ बच्चन ने कौन बनेगा करोड़पति में ऐसा ही एक सवाल पुछा था. और आज देखिये. करोड़ के साथ झारखण्ड की चर्चा पूरे देश में हो रही है. लेकिन नकारात्मक आत्मनिर्भरता के साथ. यहाँ के कुछ नौनिहालों और होनहारों ने स्वयं को धाँसू टाइप से आत्मनिर्भर बना लिया. 

28 दिसम्बर 2014 को रघुवर दास झारखण्ड के नौवें मुख्यमंत्री बने. उसके पहले आठ सरकारें झारखण्ड की सत्ता को पावन कर चुकी थी. जबकि दो बार महामहिम राष्ट्रपति के शासन का स्वाद भी ले चुका था अबुआ झारखण्ड. यानि 15 नवम्बर 2000 को झारखण्ड के गठन के बाद के 14 साल डेढ़ महीने में आठ सरकार और दो बार राष्ट्रपति शासन. हर की औसत आयु 17 महीने. सच कहूँ तो 2014 तक किसी भी वैसे मुख्यमंत्री ने अपनी चरणधूलि से झारखण्ड की गद्दी को पवित्तर नहीं किया जो कायदे से पोलियो की खुराक पिला सके. 

नतीजा झारखण्डी जनता का सलीके से कभी फायदा नहीं हुआ. सभी जल-जंगल-ज़मीन की बात करते रहे. झारखण्डियों के पाँव के नीचे से उनकी ही ज़मीन खींचते रहे और बेवकूफी की पराकाष्ठा ये कि एक सीमा के बाद अपनी ही ज़मीन उज़ार ली.

पहली बार रघुवर दास ने सत्ता संभाला और पाँच साल सरकार चलायी. पर 2019 में जहाँ मोदी के पदचिन्हों को टटोलते हुए देश एक दिशा में जा रहा था वहीं अपनी ही कारस्तानी, जरुरत से अधिक आत्मविश्वास (और वो भी खोखला), डबल इंजन... डबल इंजन के स्लोगन (जबकि ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और था) के कारण सरकार स्वर्गवासी हो गयी. फिर जब हेमन्त सोरेन 29 दिसम्बर 2019 को झारखण्ड के दसवें मुख्यमंत्री बने तो यक़ीन मानिये... कम-से-कम मुझे तो पक्का यक़ीन था कि नरेन्द्र मोदी की ज़बरदस्त लोकप्रियता और केन्द्र के मिशन मोड वाली स्थिति के कारण हेमन्त सरकार की आयु निश्चित रूप से पाँच साल होगी. कारण भी था.... कोई चाहे कितना भी खायेगा-पकायेगा पर सभी एकसाथ रहेंगे. सरकार गिरेगी नहीं. क्योंकि कुछ भी होगा तो भाजपा के केन्द्रीय स्तर के धुरंधर खिलाड़ी कभी भी कबड्डी खेलने को तैयार रहते हैं. जबकि झारखण्ड के खिलाड़ियों की साँसे कब फूलने लगे... कहना मुश्किल है.

लेकिन राजनीति में एक कहावत बहुत मशहूर है. आपको अपने सटीक कदम का फायदा तो मिलता है पर प्रतिद्वंदी के गलत कदम का फायदा भी मिलता है. कहावत तो बहुत सारी है. 

घर को आग लगी, घर के चिराग से. आप अपनी अच्छी या ख़राब किस्मत को स्वयं चुनते है... अपना सलाहकार चुनकर. अपने पहले के लोगों की कुण्डली खंगालिये... बहुत कुछ सुधर जायेगा. और भी ऐसी दसियों कहावतें-लोकोक्ति है.

पर ऐसा लगता है कि वैसे शायद दर्ज़न भर कहावतों की बजाय हेमन्त सरकार का नाम लेना ही पर्याप्त होगा जिसने उन सभी आत्मघाती कोटेशन का प्रॉपर एक्सपेरिमेंट अपने ऊपर करने का हिम्मत दिखाया और अब अपनी स्थिति ऐसी बना ली कि कांग्रेस-झामुमो-राजद की इस संयुक्त हेमन्त सरकार की अकाल मृत्यु का विश्वास, इसी सरकार के कट्टर समर्थकों को भी हो चुका है.

दीवाना मुझ सा नहीं इस अम्बर के नीचे... क़ातिल है मेरा आगे और मैं पीछे-पीछे की... तर्ज़ पर यह सरकार उस दिशा में आगे बढ़ रही है जहाँ क़ातिल का पता-ठिकाना नहीं पर जान किसकी जायेगी, यह सबको जरूर पता है.

एक तरफ कुदरत की मेहरबानी से कम-से-कम अपने नाम से तो राष्ट्र से भी बड़ा महाराष्ट्र है. वहीं जल-जंगल-ज़मीन के मामले में समृद्धि के सपने देखनेवाला अबुआ झारखण्ड. भारत के 34-35 स्टेट-यूटी में से, पच्छिम और पूरब के इन्हीं दो पहलवान राज्यों ने मोर्चा संभाल लिया है पूरे देश को न्यूज़ व इंटरटेनमेंट से भरपूर मसाला देने का. ईडी, सीबीआई, एनआईए, इनकमटैक्स आदि-आदि जितना व्यस्त इन दोनों प्रदेशों में है उतना कहीं और नहीं. विडंबना देखिये कि दोनों स्टेट की पुलिस मज़े मार रही है क्योंकि अपारदर्शिता और मामला लीक होने के डर से सभी केन्द्रीय एजेंसी राज्य पुलिस से अछूत जैसा व्यवहार कर रही है.

लेकिन समृद्धि के सपने दिखानेवाले मुम्बई या महाराष्ट्र और खान-खनिज के बल पर समृद्ध होने का सपना पालनेवाले रांची या झारखण्ड की एक ही गति है. जहाँ मुम्बई में होम मिनिस्टर से लेकर डीजीपी तक फिरौती वसूलने और लूटने में लगे हैं वहीं झारखण्ड में तो जनता पहले से ही लुटी-लुटाई है. मुम्बई में ज़मीन पर और हवा में लुटाई चल रही थी जबकि झारखण्ड में सभी ज़मीन के नीचे लूट रहे थे. मंत्री, विधायक, विधायक प्रतिनिधि, डीसी, डीएमओ, एडवाइजर और पता नहीं कौन-कौन, कहाँ-कहाँ, कितने-कितने खदान मालिक-मुख़्तार हैं यहाँ? यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ, मत पूछो कहाँ-कहाँ है अपनी... अब आगे नहीं. 

उधर, डालटनगंज से थोड़ा आगे पड़ोस में बाबाजी का बुलडोज़र पता नहीं क्या-क्या खोद रहा है? इधर झारखण्ड में आईएएस और बड़े-बड़े माई-बाप के कद वाले अधिकारी पता नहीं कब से सरकार की जड़ खोद रहे हैं. उधर प्रवर्तन निदेशालय मतलब ईडी सभी की कुण्डली खोद रही है. 

अब तो जनता भले ही कंगला हो, पास में 100-200-500 के भले ही 10-20-50 नोट हो पर टीवी, अख़बार, सोशल मीडिया पर इतनी ज़्यादा करेन्सी और नोट गिनने की मशीन नज़र आ रही है कि जोश बहुत हाई है. संभव है कि झारखण्ड में जितना नोट है उससे ज़्यादा डिमांड नोट गिनने वाली मशीन की हो जाये. कल को यदि कोकर, नामकुम, टाटीसिलवे, आदित्यपुर, बोकारो के इंडस्ट्रियल एरिया में नोट गिननेवाली मशीन का जरुरत से ज़्यादा स्टार्टअप खड़ा हो जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये किसी को. 

बहरहाल भटकाव का शिकार हूँ मैं. ठीक ऐसी ही गति झारखण्ड के आम लोगों की है. मैं मुद्दे से बार-बार, इधर-उधर हो जाता हूँ जबकि झारखण्ड में यह समझ ही नहीं आ रहा कि कौन रास्ता कब,, कहाँ से, किधर निकल जाये? खुदाई और पेड़ की कटाई बदस्तूर जारी है. गर्मी ज़बरदस्त है. पसीना टप-टप चू रहा है. पर राजधानी के हीनू में जहाँ बड़े-बड़े लोग, बड़े हवाई जहाज पर चढ़ने-उतरने जाते हैं वहाँ तो गज़ब का एहसास है. अधिकांश के लिये ठंढ़ा-ठंढ़ा, कूल-कूल. जब गरीबों के पाँव वहाँ से गुजरते है तो गर्मी में सर्दी का एहसास होता है. यहाँ रांची का नया टूरिस्ट प्लेस है.

ईडी ने शौक से बनाये गये पूर्व मंत्री एनोस एक्का के आशियाने को अपनी हवेली बनाई है जहाँ बड़े-बड़े लोग, हुकुम-हुकुम करते हुए पहुँचते हैं. कुछ सम्मन के बाद तो कुछ बिना सम्मन के. बहुत बार प्यार बिना इरादा हो जाता है. पता नहीं कब-कौन वहाँ पहुँच जाये? यह बात स्वयं वहाँ के मेहमानों को नहीं पता और शायद एक हद तक ईडी को भी नहीं पता.

लेकिन रामकसम. न मेरे नाम से एक भी माइंस है, न ही मैं कहीं का आईएएस, सेक्रेटरी, डीएमओ, ठेकेदार, हवाला कारोबारी, हॉस्पिटल मालिक हूँ और न ही मंत्री-विधायक या सलाहकार. न ही मैं कभी अमेरिका गया हूँ और जब यूएस नहीं गया तो नियाग्रा फॉल जाने का सवाल ही नहीं उठता. पर मेरा यक़ीन मानिये. मेरे दिमाग़ में जो अजगर बैठा है वह यही कहता है कि जब ईडी की हवेली के मुहाने से वे बड़े-बड़े लोग जहाज पकड़ने जाते-आते होंगे तो उन्हें वैसी फीलिंग आती होगी जैसे उन्हें किसी ने नियाग्रा फॉल के ऊपर उल्टा लटका दिया हो. 
खबर है कि बहुत सारे बड़े-बड़े साहब रांची में हैं. 

बहुत बड़े मतलब कहने को तो सर्विस वाले आईएएस पर जनता के माई-बाप... जो कहते थे आईएएस हूँ... आई ऍम सेइंग. पर गज़ब की ख़ामोशी है इन दिनों उनकी बस्ती में. ऐसा लगता है जैसे चालाक कबूतरों की बस्ती में बिल्ली घुस आयी है. एक कबूतर को उन्होंने पकड़ा हुआ है. ठेठ खबर तो यह भी है कि साहबों के व्हाट्सप्प ग्रुप में पहले जहाँ चुटकुले और पार्टी-शार्टी के मैसेज धरल्ले से चलते थे वहीं अब गुडमॉर्निंग-गुडनाइट के मैसेज भी बन्द हैं.

कोई नहीं जानता कि कब, कहाँ से कौन-सा समाचार आये और कितनों का बीपी बढ़ा दे. ईडी, इनकमटैक्स, सीबीआई, एसीबी, हाई कोर्ट, ईसी, सुप्रीम कोर्ट और पता नहीं कौन-कौन? झारखण्ड पुलिस तो खैर है ही. देश के चार-पाँच नामी वक़ील झारखण्ड हाईकोर्ट की सुनवाई में पेश हो रहे हैं. उसपर से राज्यसभा चुनाव ऐसा ही है जैसे करैला पर नीम चढ़ा. माहौल गुलजार है.

लेकिन अब मज़ाक नहीं. गंभीर बात. आखिर ऐसी स्थिति आयी क्यों? 
सही बात तो यह है कि दसियों कारण हैं. मुझे अपनों ने लूटा है गैरों में कहाँ दम था की तर्ज़ पर हेमन्त सरकार का जितना नुकसान उसके अपनों, समर्थकों, सलाहकारों, ब्यूरोक्रेट्स आदि ने किया है उतना किसी ने नहीं. जी हाँ, विपक्षी भाजपा ने भी नहीं. भाजपा, आजसू जैसे दल तो जैसे शुतुरमुर्ग बने हैं और आज किस्मत से मुद्दा मिल गया. 

लगभग ढ़ाई साल पहले जब हेमन्त सोरेन ने सत्ता संभाली तो शायद इनके अपनों को ही भरोसा होगा कि शनि की ढ़ैया कभी भी भारी पड़ेगी. सभी खान-खदान पर टूट पड़े. फार्मूला क्लियर था. मोदी वाला. सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास. विश्वास तो इतना गहरा था कि बिना नक्शा पास के स्टेट के बाबूजी केटेगरी के हॉस्पिटल (झारखण्ड के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स) के ठीक थोबड़े के सामने अपने नाम में ही अनन्त कथा समेटे पल्स हॉस्पिटल खड़ा हो गया.

खैर हॉस्पिटल बाद में. अभी खान-खदान. इस मामले में सभी को हड़बड़ी इतनी थी कि भयंकर गड़बड़ी हुई. पता नहीं कितने खदान, कहाँ-कहाँ, कितनों को चिनिया बादाम की तरह बाँट दिये गये? अब ईडी भी तू छुपी है कहाँ की तर्ज़ पर सभी को ढूँढ रही है. लगता तो है कि अभी यह कथा लम्बी चलेगी.

बहरहाल, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन उतने भी बुरे नहीं जितना उन्हें बताया जा रहा है. पर सच बात यह है कि उन्होंने चुन-चुनकर अपने सलाहकारों को रखा है. उनके आस-पास का इको सिस्टम ऐसा है कि एक वैसा वातावरण है जहाँ उसी दुनिया को सच माना जा रहा है जो दिन-रात नज़र आता है. नतीजा माननीय मुख्यमंत्री के सामने सुबह-शाम कैमरा-माइक या कागज-पेन लेकर उछलने वाले कुछ लोगों को ही मीडिया मान लिया गया है. माननीय मुख्यमंत्री के पास कहने को कुछ ज़्यादा नहीं, केवल गुस्से या व्यंग्य में कहे गये कुछ डायलॉग हैं. जबकि बाकी के पास केवल और केवल मसाला. 

श्री सोरेन का व्यक्तिगत मीडिया अकाउंट, पेज आदि के साथ ही झामुमो का सोशल मीडिया, इन सबका पीआर और कुल मिलाकर मीडिया मैनेजमेंट देखने वाले लोग पता नहीं किस दुनिया में साँस ले रहे हैं? 

न नीति, न रणनीति, न सूचना, न जानकारी, न ही निकट भविष्य का पूर्वानुमान. ना आक्रामकता और ना ही स्वयं की रक्षा करने की अदा. इस मामले में निशिकांत दुबे तो खैर पहले से आक्रामक हैं पर बाबूलाल मरांडी और दीपक प्रकाश जैसे भाजपा नेताओं ने भी प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ ही सोशल मीडिया पर अपने-आपको बेहतर रूप में प्रस्तुत किया है.

 वे सभी लगातार मुख्यमंत्री और सरकार को निशाना बना रहे हैं. परन्तु इसके जवाब में सरकार या झामुमो की ओर से कुल मिलाकर खामोशी ही है. कोई कुछ बोलता भी है तो रक्षात्मक होकर. पलटवार तो खैर बहुत दूर की बात है.

पिछले कुछ महीनों में झारखण्ड सरकार के साथ ही झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने, परन्तु विशेष रूप से मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने अपनी राजनीतिक एवं रणनीतिक अदूरदर्शिता का ही परिचय दिया है. 

वर्तमान राजनीतिक परिवेश और सरकार के सामने खड़े गहरे संकट के लिये ये बातें भी बहुत हद तक जिम्मेदार है. सरकार के इर्द-गिर्द संकल्प का नामोनिशान नहीं और अब तो ऐसा लगता है कि हेमन्त सरकार और इसके अपने-अपनों का ही विश्वास खोखला हो गया. 

अब सभी का उद्देश्य अपनी गरदन को ही बचाना है, सरकार बचाना नहीं. क्योंकि वन-टू का फोर करने के मामले में भी अनाड़ी है झारखण्डी. जबकि ईडी तो जैसे, जाला को पकड़कर स्पाइडरमैन की तरह जहाँ-तहाँ पहुँच रही है... अपने मेहमानों की खोज में.

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