अपने युग की सबसे सुन्दर स्त्री थीं वे! जितनी सुन्दर, उतनी ही विदुषी! आस-पड़ोस की स्त्रियां कहती, "इसे ब्रम्हा ने अपने हाथों से बनाया है। ये ब्रम्हा की पुत्री हैं।

“वे सब ठीक ही कहती थीं। उन्होंने जिस ऋषि का वरण किया वे अपने युग के श्रेष्ठ विद्वानों में एक थे। दोनों में बहुत प्रेंम था। न्योछावर थे एक दूसरे पर... जीवन के हर पथ पर संग चलने का वचन निभाते लोग, तपस्या के लिए बैठते तब भी संग ही बैठते थे। प्रेंम का चरम छू लेने पर या तो वैराग्य मिलता है, या वियोग! नियति की ओर से उन्हें वियोग मिलना था। 

ऋषि एक दिन भोर में गङ्गास्नान को गए थे। देवी को एकांत में पा कर एक महापुरुष अनैतिक याचना लिए आये। यहाँ तक कि वेश बदल कर ऋषि का ही रूप ले लिया। काम पुरुष का प्राथमिक दुर्गुण है, वह किसी को नहीं छोड़ता। बड़े-बड़े महापुरुषों की मति हर लेने वाला काम तब इंद्र की मति हर चुका था। 

देवी पहचान गयीं पति के रूप में आये छली को। स्वर्ग के अधिपति को तिरस्कार के साथ वापस तो लौटा दिया, पर उतने महान व्यक्ति को भी अनैतिक प्रयत्न करते देख वैराग्य भाव से मुस्कुरा दिया। दुर्भाग्य! कि बस उसी क्षण पति लौट आये। राह में उन्होंने देखा था अपने ही भेष में आश्रम से निकलते इंद्र को... प्रेंम या तो अति विश्वासी बना देता है, या अति भयभीत! महर्षि गौतम के हिस्से में भय आया था। इसमें होता यह है कि प्रेंम जितना ही गहरा हो, उतना ही भयभीत कर देता है। 

हर समय यही भय, कि कहीं मेरा साथी मुझे त्याग तो नहीं देगा? उसे कोई और प्रिय तो नहीं...? ऋषि का भय क्रोध में बदल गया। क्रोध सबसे पहले हर लेता है बुद्धि। क्रोध के वश में उस महाज्ञानी ऋषि ने एक क्षण में ही इंद्र को शाप दिया और अगले ही क्षण पत्नी को त्याग देने का प्रण ले लिया। पर ज्ञानियों का क्रोध क्षणिक होता है। ऋषि को सत्य का भान हुआ तो उपजा अपराधबोध... पत्नी से क्षमा याचना की। 

पर पत्नी के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार के लिए स्वयं को भी दंडित करना था न! तो स्वयं के लिए दण्ड निश्चित किया कि प्रेयसी से दूर रहेंगे। तब तक, कि जब तक राम न आ जाएं... राम का आना ही क्यों? महापुरुषों के आगमन से युग के पाप धुल जाते हैं मित्र! वे तो राम थे। मर्यादापुरुषोत्तम! करुणासिंधु! उधर पति से तिरस्कार पा कर जड़ हो गयी थीं अहिल्या! विश्वास ही नहीं होता था कि इतने अविश्वासी हो जाएंगे पति! एक निर्दोष को ऐसा दण्ड? एकाएक जैसे पत्थर हो गईं। दोनों के तप का स्वरूप बदल गया। 

ऋषि अपने आश्रम को छोड़ कर सुदूर वन में तप कर के प्रायश्चित कर रहे थे, और पत्नी उसी आश्रम में एकांत वास कर अपने प्रेंम का साथ निभा रही थीं। दोनों की साझी प्रार्थना बस इतनी ही थी कि राम आएं... राम आएं कि उनके आने से मुक्त हो जाएं हम... उनका रोम-रोम राम के लिए रो रहा था जैसे... जाने कितने बरस बीत गए। जाने कितने युग बीत गए। राम को ढूंढते-ढूंढते गौतम और अहिल्या वृद्ध हो गए थे। और एक दिन... उन दो राजकुमारों को लेकर अनायास ही उस परित्यक्त कुटिया की ओर मुड़ गए महर्षि विश्वामित्र! जैसे कह रहे हों, "मुक्त होवो देवी! तुम्हारी तपस्या अंततः खींच लाई उस युगपुरुष को..." राम यूँ ही नहीं आते मित्र! उनके पीछे किसी अहिल्या की लंबी तपस्या होती है।

 

(-एक विदुषी मित्र से प्राप्त )

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